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कौतूहल

लॉक डाउन में बच्चों को सामुदायिक लाइब्रेरी से जोड़ने का प्रयास*
पिछले 4 वर्षों में यूँ तो हमने लाइब्रेरी आधारित कार्य सरकारी विद्यालयों तक सीमित कर रखा था पर इस ‘कोरोना काल’ ने हमें यह प्रेरित किया की हम अपने सीमाओं के पार भी झांकें | हमने कभी नही सोचा था की ऐसा दिन देखना होगा पर शायद इसलिए कहा जाता है की चुनौती भरे परिस्थितियों में ही काम करने का असली मज़ा है | 
मार्च महीने से विद्यालय कोरोना को लेकर बंद हो गए और इसलिए हमें भी कुछ ख़ास समझ नहीं आ रहा था की क्या करें – बस घर पर रहना और किताबें पढ़ना, पर मन विचलित था | एक टीम के रूप में हमने अपने चर्चा को जारी रखा | एक प्रस्ताव आया की क्यों न बच्चों से मिलें और उन तक किताब पहुंचाना सुनिश्चित करें? प्रस्ताव पढ़ने में तो बहुत अच्छा लगता मगर इस समय हम जाये कैसे, यह चुनौती हमारे सामने बनी रही | मन में बहुत सारे प्रश्न थे की समुदाय हमे अपनायेगा या नहीं ? बच्चे आएंगे या नहीं ? बस यही सोच-सोच कर हम अपने प्लान को टालते रहें | कई बार मन में नकारात्मक बाते ही आती पर यह सभी ने सोच रखा था की इसके पार जाना है – और हमारे चर्चा के केंद्र में बच्चे और इस परिस्थित में उनकी समस्याएं ही केंद्र में थी | उसके बाद हम सभी साथियों ने चर्चा किया और चर्चा से निकल कर आया की अब हमे कुछ करना होगा क्योंकि समय ऐसे ही रहेगा – इस फैसले तक पहुँचने के लिए हमें लग भाग 2 महीने लग गए | पर इस बीच, हम बच्चों को अन्य माध्यम से कहानी से जोड़ने में सफल रहे क्योंकि ऐसा हमने लगभग 1 महीने तक कर के देखा और तब हमें विश्वास हो पाया की ऐसे परिस्थिति में सामुदायिक पुस्तकालय की तरफ हमें आगे बढ़ना चाहिए | उसके बाद हमने एक योजना तैयार किया की शिक्षकों के माध्यम से समुदाय के पास पहुंचेगे | हमने तीन स्कूल का भ्रमण किया – स्कूल के सभी शिक्षक और प्रधानाध्यापक ने कहा की बहुत अच्छा योजना है, मगर कोरोना के पश्चात शुरू करने का आश्वासन दिया | बार-बार यही सवाल सामने आता की हम करें क्या? उसके बाद हमने कुछ शिक्षकों से फोन से बात किया तो उन्होने भी कहा की बहुत अच्छा है हमलोग सोचते है पर इस सोच में लगभग एक महीने गुजर गये | पर हमें कहीं न कहीं पता था की यदि हम अपने प्रयास में लगे रहें तो ज़रूर कोई रास्ता मिल जायेगा | 
हमारे कोशिश करने का उद्देश्य यही था की कैसे हम समुदाय आधारित लाइब्रेरी कार्य शुरू कर सकें | अफ़सोस नहीं हो रहा था क्योंकि बहुत ही स्वाभाविक था की स्कूल बंद होने के अवस्था में कोई भी शिक्षक इसके लिए तैयार नहीं होंगे पर हमारे लिए एक बड़ा सवाल था – क्या हम बच्चों को किताबों से वंचित रखें, क्या उनके सोच और उनके अनुभवों को दबाये रखें? चाहे कितनी बड़ी विप्पति ना आ जाये दुनिया में, क्या हमें प्रयास करना छोड़ देना चाहिए?
एक दिन की बात है हमारे पास उत्क्रमित मध्य विद्यालय खेम मटिहनिया के प्राचार्य का फोन आया और उनसे बातों बातों में हमने सामुदायिक पुस्तकालय की परिकल्पना को साझा किया | उन्होंने सुझाव दिया की यदि कोरोना में चल रहे सावधानियों को ध्यान में रख कर यदि ‘प्रयोग’ इसका सञ्चालन कर सकता है तो यह अच्छा होगा और समुदाय से वो हमें जोड़ने में मदद भी कर सकते हैं | खेम मटिहनिया के बाकी शिक्षकों के साथ भी जब यह चर्चा हुआ तो उन्हें सामुदायिक पुस्तकालय का प्रस्ताव अच्छा लगा और यहाँ तक की एक शिक्षिका, जो उसी गाँव की रहने वाली हैं, उन्होंने अपने घर से इसे सञ्चालन करने का हमें न्योता भी दे दिया | पर सुझाव आया की गाँव के लोगों से तो बात करना ही पड़ेगा | 
अब तो हमारे उत्साह का ठिकाना ही नहीं था और हमें अब इंतज़ार था तो सामुदायिक बैठक का – यह बैठक कैसा रहा होगा? हमने इसके लिए क्या तैयारी किया? समुदाय से क्या – क्या सवाल आएं ? बहुत ही रोचक बातें हुईं और अगले ब्लॉग में उस कड़ी को साझा करेंगे | 
* इस ब्लॉग को प्रयोग के सदस्य, बिनीत रंजन और कैलाश ने लिखा है | सामुदायिक पुस्तकालय के इस प्रयास को कुचायकोट प्रखंड के खेम मटिहनिया गाँव में किया जा रहा है जो गंडक नदी के किनारे बसा हुआ है – अभी तक 58 बच्चे इससे जुड़े हैं और नियमित किताबों का लेन देन कर रहे हैं | 64% भागीदारी बच्चियों की है और इसमें भी कक्षा 6 से 8 (early adolescent age group) से ज़यादा रुझान है | क्या कोई ख़ास वजह हो सकता है, शायद इसे हमें और बारीकी से समझने की ज़रूरत है | 
बच्चों द्वारा इस्तेमाल किया जा रहा लेन – देन कार्ड (lending card) 

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5 Comments on “कौतूहल

  1. this is such a fabulous step and I can't believe this that children from a remote village are doing it and many thanks to the team which is heading forward would love to read many more blogs the steps taken by the the village principal is very good and this has inspired us a lot books can change someone's life a good reading must be promoted

  2. “Those who educate children well are more to be honored than they who produce them; for these only gave them life, those the art of living well.” (Aristotle)
    And here we found Prayog

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