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A different perspective I learnt in an Art workshop…

 

Everyone
in my home was super happy when they got to know that I would be travelling to Bangalore
to attend a training in the month of October. Unlike the first time that I had
to travel to Goa two years ago for a training, I had to seek permission from
everyone – my husband, my in-laws, my parents…and literally everyone, they had
so many questions but time and thoughts change so quickly. Now, everyone knows
that my jobs need me to travel sometimes to distant places and my family has
accepted it very well.

This was the third time that I was going to travel in a
flight, all three of which has been to attend trainings in different parts of the
country – Goa, Rajasthan and this time Karnataka. For this visit, I started very
early from my home and reached quite late in Bangalore. I was so tired that
after reaching the Wipro Guest house, I had no energy left in me but only to
awake in the morning and look around the beautiful and humongous campus. My
children were in awe when I made them a video call and they said, “mummy, you
always travel to such wonderful places”.

I too was also quite happy about my Bangalore visit but
there was one thing that I was feeling scared about – English.

Well, it was Day 01 and I entered the training hall and so
did my fear of English language enter with me. But I was taken by a bit of
surprise because very soon I started enjoying the activities. I suddenly
started enjoying oil pastels and ways to create patterns, shades using them and
thinking about art differently. 

Over the next few days, I witnessed so many
experiences and was so thrilled at using such differing materials in the form
of clay, collage, tempera paint and then understanding assessments and session
design. 

I learnt a lot in the 6 days of training, met a lot of wonderful people
from various parts of the country and got to know about them. My biggest fear,
of not knowing the language, was shattered down by the facilitators who tried
their best to convey in Hindi and other participants also helped me a lot. We
developed a strong bond and the best part was no one had any reflection of ‘ego’.

I really loved the facilitation style of Nisha, Anu and
Saagarika, the ArtSparks team members, who had also designed the sessions which
flowed so smoothly for me. I was looking at this ‘trio’ and was so astonished with
their co-ordinated approach. Looking at them, I was remembering my team back in
Bihar and this remembrance came each time when I saw them talk and laugh
together. I don’t know why but I have started to feel a bit left out and lonely
in my team, lately. Everyone seems to have a problem with my tone and my voice,
it may be that I am wrong. I have a higher pitch and may be that doesn’t go
well for all. Sometimes I feel that I should not speak out but this is just not
in my personality and I cannot resist speaking out. Even though I sometimes
commit to myself that I won’t be speaking out in team but then I am asked to share
my voices, concerns, experiences etc. I feel a bit confused as this has made me
look problematic for my colleagues or may be that I am not understood well. I
feel to have friendly relations with my colleagues, I still remember when I was
in Bhopal railway station a couple of months ago while returning from a
training and I was in tears knowing that it was the last day of one of my colleagues,
back in Gopalganj, and cried and spoke to him.

The ArtSparks training, apart from shaping my understanding
on art work, gave me a lot of insights for me as a person to think and grow. I
also realized how crucial it is to have a strong bond with my team members. I need
to work a lot on myself, especially the ways I could put up my words and
thoughts with all, without hurting anyone.

                                                                                                    – Ragini, Library Educator at Prayog

                                                            

[Note]: 

Ragini is a library educator in Prayog and has been a champion of engagement with children through books in Govt schools and community library sites in Gopalganj, Bihar. This blog is her reflection on a different experience of emotions that she went through and thought about during the 6 days EdSparks Collective training conducted by ArtSparks Foundation. She had a very enriching experience during the time she spent in Wipro Campus, Bangalore and had some very critical insights after observing the facilitators of this workshop. It is not easy to reflect and share about oneself in a way that she has reflected and kudos to her and also to the facilitation team at ArtSparks Foundation for inspiring her. The reflection note has been translated from Hindi by one of her colleagues at Prayog. The views are personal and while Prayog does promote a very health organizational culture, this has also raised a point of discussion within the organization on the needs to continuously engage with its members on working environment and issues that they face in inter-personal communication. 

एक विस्थापित घर के बच्चे के जीवन में पुस्तकालय का महत्त्व : अंकित का अनुभव

यह अंकित के पुस्तकालय सफर का एक हिस्सा है | 2020 में जब प्रयोग ने पहली लॉक डाउन के समय खेम मटिहनिया में सामुदायिक पुस्तकालय शुरू किया तब अंकित हमारे पुस्तकालय से जुड़ा।

अंकित का घर गोपालगंज जिला के दीयरा क्षेत्र में विशंभरपुर नामक गाँव में था । साल 2015 में भयानक बाढ़ के कारण अंकित का घर कटाव में चला गया  और वह अपने गाँव से विस्थापित होकर सासामुसा आ गया । सासामुसा लगभग दो साल किराए के मकान में रहा । आर्थिक तंगी के कारण साल 2017 में उसका परिवार किराया का मकान छोड़कर अपने बुआ के घर खेम मटिहनीयां आ गया । 

अंकित के पिता दैनिक मजदूर हैं और वो बिहार से बाहर कार्य करते हैं ।  अंकित स्वभाव से बहुत शांत और शर्मीला है, वह बहुत कम बोलता है । शुरू में अंकित सत्र में आता था और बिना किताब जारी किए ही चला जाता था । अंकित से हमने धीरे-धीरे बाते करना शुरू किया । धीरे धीरे मेरे और अंकित के बीच एक गहरा संबंध सा बनता गया । अंकित अपनी सभी बातों को साझा करता था और मैं उसकी बातों को बहुत ही खुले मैं से सुनता था। बहुत सी चुनौतियां उसके सामने थी पर वह हमेशा हमारे पुस्तकालय में आता रहा । अंकित को पढ़ने और लिखने में बहुत दिक्कत होती थी और कई दूसरे बच्चों की तरह वह सत्र के दौरान सबके सामने नहीं बोलता था । अंकित का एक ही सवाल रहता था – “मैं कैसे पढ़ूँ” ? सत्र के दौरान हमलोग मिलकर साझा रीडिंग भी करते थे । अंकित धीरे-धीरे पढ़ने लगा और लिखने भी लगा । उसके लेखन को हमारे पूरे टीम ने पहले दिन से लेकर और जब तक हमारे पुस्तकालय में जुड़ा रहा तब तक बहुत ही नज़दीक से देखा है और वह हमारे बातों पर विचार भी करता था , बेशक उसमें बहुत बदलाव भी आया – सत्र के दौरान अंकित अपनी बातों को रखने लगा, वह अपनी पढ़ी कहानी को सबके समक्ष साझा करता और सत्र के दौरान प्रश्न भी पूछता । यह देखकर हम बहुत खुश होते और अपने साथियों के साथ चर्चा भी करते की अंकित में कितने बदलाव आये हैं। अंकित और वहाँ के बच्चों के उत्साह को देखकर हमारी टीम का भी आत्मविश्वास बढ़ता गया । अंकित से जब भी मुलाक़ात होती तो बहुत उत्साह से वह साझा करता की अभी तक कितने किताबे पढ़ लिया और उसके आँखों में एक अलग ही ऊर्जा दिखने लगी । 

एक दिन अंकित ने बताया की वह इस गाँव को छोड़ कर जा रहा है क्यूंकि उसका घर कुचायकोट में बनने वाला है । हमने उसे बधाई दिया और अपने कुचायकोट ऑफिस का पता भी दिया । अंकित हमारे पुस्तकालय का एक अहम वोलेंटियर भी था ।  यह पुस्तकालय सत्र संचालन, किताबों के लेन-देन, गाँव भ्रमण में भी बहुत मदद करता था । 

आज मैं ऑफिस में अकेला था । मैं अपने कार्यों में व्यस्त था तभी नमस्कार भैया का आवाज़ मेरे कानों में आया और मैंने देखा तो वह अंकित था ।  उसे देख कर मैं बहुत खुश हुआ और उसे बैठने को कहा । अंकित और मेरे बीच पहले बहुत सी व्यक्तिगत बातें हुई । अंकित ने बहुत ही खुल कर बातें की और यह देखकर मैं चकित था की क्या वह वही लड़का है ? अंकित ने पुस्तकालय का भ्रमण किया और एक किताब भी पढ़ा । उसके बाद उसने घर ले जाने के लिए एक किताब जारी किया । अंकित ने कहा की मुझे जब भी समय मिलेगा मैं अपनी पुस्तकालय में जरूर आऊँगा । अंकित वर्तमान में वर्ग 10 में पढ़ रहा  है ।  

इस लेख को प्रयोग के पुस्तकालय संचालक बिनीत रंजन ने लिखा है और यह उनका निजी अनुभाव है | अंकित और अंकित जैसे सैंकड़ों बच्चे बच्चियों के साथ प्रयोग की पूरी टीम एक साथ कार्य कर रही है | पता नहीं कब किसकी कौन सी बात से बच्चे प्रभावित हो जाते है | अंकित के साथ जो भी हुआ वह हमारे टीम के प्रयास का ही नतीजा है | 

पहली बार किताबों की दुनिया की सैर…

मेरा नाम विश्वनाथ है पर प्रयोग और बुकवर्म के
साथी हमें टिंकु नाम से पुकारते हैं/ जानते हैं
, जो की हमे
अच्छा लगता है। हमारा प्रयोग के साथ 1 अप्रैल 2021 से जुड़ाव हुआ। इस बार मैं स्थाई
रूप से जुड़ा जो की हमें अच्छा लग रहा है।
May 2021 मे कोरोना
भी फिर से अपना भयानक रूप मे आ गया जिसके कारण हमारे राज्य के साथ-साथ अन्य राज्य
मे भी सम्पूर्ण लॉकडाउन लगा।

लॉकडाउन के दौरान हमें एक नयी साथी से जुड़ने का
मौका मिला जो हमारे लिए नयी बात थी। नयी इसलिए थी। हमें नयी -नयी किताब पढ़ने का
मौका मिल रहा था। उस किताब जो की हमने प्रयोग मे देखा था प्रयोग के माध्यम से सुना
था
, जाना था क्यूंकी हमें अपने पढ़ाई के दौरान कभी- भी
ऐसे किताबों को न तो देखा था और नहीं किसी से सुना था। इसलिए भी हमारे लिए उत्साह
का विषय था।

हमारी टीम प्रयोग मे 21 अप्रैल से ही लॉकडाउन लग
गया था हमारे साथी फील्ड मे बच्चों के पास जाना छोड़ दिए थे क्यूंकी इस बार का
कोरोना गाँव मे भी ज्यादा फैल रहा था। जिसके कारण बच्चों के अभिभावक का ही कहना था
की कुछ दिन के लिए इस कार्य को स्थगित कर दिया जाए क्यूंकी आपलोग भी बाहर से आते
हैं
, और बहुत सारे बच्चे एक साथ होते थे तो सब को डर
लग गया। लेकिन हमारे टीम ने बच्चों से संपर्क नहीं छोड़ा । हमारी टीम जाती थी और
किताब वे बच्चों को दे कर आ जाती थी। ऐसा कुछ दिन चला।

इसी दौरान हमारी टीम ने निश्चय किया की हमलोग
खुद भी किताबों को ज्यादा से ज्यादा पढ़ें और उसपे चर्चा करें
,
लिखें, फोन से क्यूंकी हमलोग भी एक साथ एक
स्थान पर नहीं बैठ सकते थे।

हमलोग ने फोन के माध्यम से ही किताब को पढ़ना
शुरू किया और उसी के माध्यम से उस पर चर्चा चालू किया।  पर हमारी चर्चा किताब पर किताबों से बाहर की
बातें ऐसा कुछ दिन ही चला की हमे बुकवर्म के बारे मे जानकारी मिली। बुकवर्म एक ऐसी
संस्था है जो की गोवा मे लाइब्रेरी/ पुस्तकालय पर काम करती है
,
उनका एक अपना ही रास्ता/तरीका है, उनका एक
किताबों का एक संसार है। हमने बुकवर्म के बारे मे प्रयोग टीम से जुडने के पहले ही
सूर्या सर के माध्यम से उनके बारे मे हमें बहुत जानकारी मिलता था और खास करके
बूकवर्म के सुजाता दीदी
, नयन दीदी, अनंदिता
दीदी के बारे मे जो की हमने सुन रखा था
, तो हमें लगता था की
वो किताबों की जीती जागती सरस्वती ही हैं
|

एक समय ऐसा आ ही गया की हमें किताबों के दुनिया
मे रहने वाली किताबों की कीड़ा कहे जाने वाली
, किताबों को
विचारने वाली
, किताबों के अध्ययन करने वाली, किताबों की फ्रेमिंग से लेकर लास्ट के शब्द पर गौर करने वाली हमारी और
हमारी प्रयोग टीम के आत्मा मे बसने वाली हमारे सूर्या सर और हमारे टीम की सबसे
प्रिय सुजाता दीदी
, नयन दीदी और अनंदिता दीदी से फोन/जूम कॉल
के माध्यम से उनका साक्षात दर्शन होने /करने की तारीख मिल गया।

हमारे लिए इतना खुशी का पल
था वो तारीख वो समय जान कर की हमें 22 मई 2021 समय 2:30 पूर्वाहन को उनका साक्षात
हमारे दर्शन होने वाले हैं। उसके बाद हमारे खुशी का ठिकाना नहीं रहा कुछ पल के
लिए। पर फिर कुछ पल बाद हमे हमारी मायूसी छा गई क्यूं
? क्यूंकी मैं जिन व्यक्ति के
सामने होने के बारे मे जानकारी मिला तो वो कोई आम नहीं
, खास थे। हमे शर्म लगने लगा
अपने से
, अपने आप मैं की सवाल करने
लगा की मैं उनके सामने क्या बोलूँगा तो क्या 
होगा
? क्या हम उनकी बातों को समझ
पाएंगे
? क्या वो भी हिन्दी बोलते
होंगे
? क्या वो हमारी बोली समझेंगे ?

क्यूंकी हमें तो हिन्दी ही
बोलने आती है। अंग्रेजी को सोचना भी हमारे लिए गुनाह है। पाप है
, दोष है | मैं क्या बोलूँगा मैं अपने
आप से विचार कर ही रहा था की हमारे दिमाग में एक उत्तर मिला तो भी इतना मजबूत की
उसके बारे मे सोच कर रोना आ रहा था । वो उत्तर था की मैं सत्र मे कुछ बोलूँगा ही नहीं
। मैं अपने आप से ही कहने लगा
, आज की मेरा तबीयत खराब हो जाता किसी कारण, बस मैं उनके सामने नहीं जाता
तो अच्छा रहता । सोचे भी तो क्यूँ नहीं सोचे
, हमारी भी अपनी कभी भी हमने
कभी किताब से लगाव नहीं रखा
, हमारी कार्य भी जो था वो एक ड्राइवर का था | मैं जिस कार्य मे था / करता
था पहले उसमे किताब शब्द दूर दूर तक सुनने को नहीं मिलता था की एक किताब शब्द भी
होता है । जिसके कारण देश प्रदेश के लोगों को जोड़ा जा सकता हा। क्यूंकी हमने तो 10
th तक ही किताब पढ़ा वो थी पाठ्य
पुस्तक इसलिए मैं ज्यादा परेशान भी था। क्यूंकी मैंने डिग्री जरुर
B.A का लिया पर पढ़ा तो वही
क्यूंकी मैं तो परीक्षा को जरूरी समझा
, पढ़ाई को जरूरी नहीं समझा । परीक्षा का तारीख आया और
उसी दिन कलम और गेस पेपर लिया परीक्षा हॉल मे पहुँचा
, चोरी किया, पेज भरा और बाहर आ गया | इसी प्रकार हमें B.A तक की डिग्री लिया, सिर्फ डिग्री लिया, ज्ञान नहीं। जोकि उस दिन लगा
की अगर ज्ञान होता और डिग्री नहीं रहता तो मैं शायद उनकी बातों को समझ पता । इसी
को लेकर हमारे दिमाग मे अनेकों विचार आने लगे। पर “अब पछताए होवे का
, जब चिड़िया चुग गई खेत”। मतलब
तब तक मे अपना सब समय बर्बाद कर चुका था। फिर आखिरकार हमें बुकवर्म टीम के साथ
जुड़ना पड़ा । दिन 22 मई 2021 को जूम कॉल के मदद से हमारे प्रयोग टीम के सभी साथी जो
की पहले भी बुकवर्म टीम से मिले भी थे आमने सामने और फोन पर भी उनलोग की बात होती
थी। लेकिन मैं सिर्फ उनलोगों को फोटो मे देखा और वही से उनका नाम जाना था।

 

पहला सत्र 22 मई 2021 को शुरू
हुआ स्टार्टप के दौरान अपना परिचय शुरू हुआ। लेकिन हमें एक आश्चर्य हुआ की वो भी
हमें नाम से जानते थे क्यूंकी सूर्या सर ने उनको बताए थे। आपस मे परिचय के बाद जो
किताब पर चर्चा शुरू हुआ तो मानो की ऐसा लगा की नील बटा सन्नाटा रह गए। जैसे की
हमलोग के यहाँ  पर प्रयोग टीम का किताब पर
समझ /चर्चा जो होता था और बुकवर्म का जो किताब पर पकड़ था समझ जो उनके पास था तो
मानिए की जमीन और आसमान का फर्क था। हमलोग अपने टीम में अपने बात को रख कर अपनी
बात को घूमकर अपनी पीठ थपथपा लेते थे। लेकिन उनके पहल सत्र के दौरान हमें पता चला
की हम इस कार्य के काबिल नहीं हैं। हम सिर्फ बक- बक करते हैं। मैं किताब को समझता
नहीं था समझना नहीं चाहता ये सारी चीजें हमें अपने आप में दिखने लगा। सत्र के
दौरान मैं भी अपने बात को रखा और सबसे बड़ी बात की बुकवर्म के टीम या मेरे भी साथी
हमारी बातों को सुनी और हमें बोलने का मौका दिए। हमें उसके लिए मैं उन सभी का
शुक्र गुजार हूं।


सत्र तो हमारे लिए ठीक ठाक जैसा तैसा रहा पर सत्र खत्म होने के बाद हमें एक
चीज सोचने को मजबूर कर दिया की मैं जिस तरह से बुकवर्म टीम के साथी के बारे मे जो
हमारे दिमाग मे जो फालतू के बात था की क्या तो हमारी बातें सुनेंगे की नहीं
, हमारा खुद का भाषा उनको समझ मे आएगा की नहीं
आएगा क्यूंकी नयन दीदी ट्रांसलेटर हैं
, मतलब अंग्रेजी तो बोलते ही हैं और हिन्दी के साथ लोकल भाषा जो हमारी भाषा
है उसे भी समझते हैं
, और उसे समझकर अंग्रेजी के अनुवाद करके सुजाता दीदी, अनंदिता दीदी को समझाना ये कोई आम बात नहीं
है। फिर हम सोचे की आज का जो सत्र हुआ उसके बाद हमारे मन मे विचार आया की मैं
सूर्या सर को बोल दूँ की ये पढ़ाई लिखाई अब हमसे नहीं होगा क्यूंकी ये सब अब
हमारे  दिमाग/ समझ के आस- पास भी नहीं आता।
हमारे दिमाग से कोसों दूर से निकल/ गुजर जाता है। लेकिन मैं बोल नहीं पाया क्यूंकी
जो व्यक्ति हम पर समय/ पैसा दोनों निःस्वार्थ खर्च रहें हैं उनको हम क्या और कैसे
बोले की हमसे नहीं होगा । फिर मैंने सोच की एक प्रयास करते हैं। कहीं बदलाव आ जाए
और मैं अपनी बात को मन मे दबा कर रख लिया। फिर एक सप्ताह के गैप के बाद बुक वर्म
टीम से जुड़ने का मौका मिला । इस बार हम जो तैयारी किये थे की कोशिश करूंगा किताबों
के बारे मे उनसे बात करने को पर इस बार फिर एक नया पहलू आया किताबों को लेकर
, विचारों को लेकर, प्रश्नों को लेकर, अब हमें लगा की इतना आसान नहीं है पढ़ाई करना
– एक के बाद एक नया पहलू हमारे समझ के परे था। पर बुकवर्म टीम का समझ हमें लगा की
वो हमे किताबों को गहराई मे भेजना चाहते हैं। लेखक अगर लिखे तो इसका मतलब इस विषय
पर क्या है। क्यूँ लिखे हैं उसके बारे मे जानकारी देना चाहते थे। इसी लिए एक-एक कर
हर पहलू से अवगत करा रहे थे। हमको लगा की उनका सोच और समझ कितना हाई लेवल का है की
वो हमे धीरे -धीरे हर शब्द हर बात से अवगत करा 
रहे थे। हर सत्र मे एक नया विषय को ला रहे थे। ताकि हमें सोचने का मौका
मिले
, हम उस विषय पर समय
और समझ दोनों देने का भी पूरा ख्याल रख रहे थे। लेकिन हमे समझ नहीं आ रहा था । हमे
लगता था की ये क्या हो रहा है हमारे साथ । आज उस पर कुछ सोचता हूँ तो एक नया
प्रश्न हमारे पास आ जाता था क्या करें हम। हमने तो निश्चय किया की अब हमें छोड़
देना चाहिए पढ़ने का काम पर हमें इच्छा /हिम्मत भी नहीं था की हम सूर्या सर से बोल
पाएंगे की हम नहीं कर सकते हैं। वो क्या कहें तो यही ना कहेंगे की तुमको सिर्फ
पढ़ना ही है। क्या तुम पढ़ भी नहीं सकते हो
? किताब के सत्र के दौरान भी एक नया सत्र आया सिलाई का उसमे और भी नए -नए
लोगों से जुड़ने का और उनसे बात करने का मौका मिला ।

 

सिलाई सत्र के दौरान हमें थाथा की कद्दूकिताब की लेखिका – ललिता अय्यर हैं, उनको भी देखने का मौका मिला जो की हमारे लिए सौभाग्य की बात थी। हमारा
बुकवर्म टीम के साथी किताब और सिलाई दोनों पर लगातार चर्चा जारी रहा। किताब हमारे
लिए महत्वपूर्ण था। उनका भी ज्यादा फोकस किताब के ऊपर ही रहता था की हमारी सोच और
समझ नजरिया सभी किताब के प्रति बदले हम भी प्रयास कर रहे थे। हमे भी किताब की अंदर
झाँकने की कोशिश कर रहा था पर हमे संतुष्ट उत्तर अपने आप मे ही नहीं मिल रहा था ।
पर हम अपना प्रयास जारी रखे थे
|  इसी दौरान हमे एक कोर्स करने
का मौका मिल जिसका नाम था Prayog Library Mentoring Support – 
PLMS(II)  जो इसका पहला भाग 2020 मे पूरा
हुआ उस दौरान हम प्रयोग से सम्पूर्ण रूप से नहीं जुड़े थे इस  लिए हमे
PLMS(I) की जानकारी ज्यादा नहीं बस हम इतना जानते हैं की बुकवर्म से एक टीम बिहार
के प्रयोग मे आई थी उसमे से कुछ का नाम हमे याद है । इससे ज्यादा नहीं।
PLMS(II) अगस्त 2021 मे शुरू हुआ – हमसे
और हमारी टीम से कुछ बातों पर सहमति लिया गया हमने भी उस बात को मानने का वचन
दिया। पर मैं अपने वचन पर खरा नहीं उतरा
, यह गलती हमारी है । हम किताब के ऊपर समय नहीं दिये, हमे इसका दो कारण समझ मे आता है -(1) की जो
मेरा काम है मैं उस काम के अलावा और पर फोकस नहीं दिया (2) किताबों से डर जो पढ़ना
आसान है पर गौर करना आसान नहीं है। वही हुआ
PLMS(II) सत्र चलता रहा और मैं शामिल हुआ पर कुछ ख़ास हमने प्रभाव नहीं दिखा ऐसा नहीं
की 
बुकवर्म टीम ने कोई कसार छोड़ा
था
, सारी  गलती नाकामी हमारी है । मैंने अपने वचन के
अनुसार पूर्ण समय नही दिया। 


फिर अक्टूबर मे सुजाता दीदी बिहार प्रयोग मे आई 12
दिन  के लिए । मैंने भी 12 दिन उनके साथ
समय दिया, हमारी टीम ने भी
उनके साथ पूरा समय दिया। दीदी ने हमारी और हमारी टीम की कमजोरियाँ को ऐनक दिखाया ।
हमने और हमारी टीम ने फिर संकल्प लिया की मैं अपने कार्य  के प्रति प्रतिबंध रहेंगे।

 

लेकिन मैं अपने टीम के बारे मे तो नहीं बता सकता पर मैं अपने कार्य के
प्रति प्रतिबद्ध नहीं रहा। दीदी के जाने के बाद मैं फिर पूर्ण रूप से अपना काम पर
ही रहा जो की मेरा काम ड्राइवर का । इसके अलावा मैंने फिर किताबों से दूरी ही रहा।
फिर दिसम्बर  मे गोवा जाना था । उसमे मेरे
टीम के साथ मुझे भी सूर्या सर लेकर मैं उनका बड़प्पन था  क्यूंकी 
मैं सिर्फ
PLMS(II) मे हिस्सा जरूर था उनके नजर मे। पर मैं PLMS(II) के लिए कुछ नहीं किया था। गोवा
जाना हमारे लिए बहुत बड़ी बात थी क्यूंकी मैंने उससे पहले कभी बिहार से बाहर नहीं
गया था। जो भी जगह गए
, ड्राइवर के काम से ही जाना हुआ था पर पहली बार ऐसा था जो मैं ड्राइवर बनकर
नहीं एक लाइब्रेरी  के तौर पर हमें गोवा
जाने का मौका मिला वो भी फ्लाइट से जो कभी भी उसके बारे मे सोचा  भी नहीं था । सिर्फ आसमान मे देखता था और
एयरपोर्ट के गेट पर पैसेंजर लाने जाता था ।

04/12/2021 के पहले तक मैं कभी एयरपोर्ट के गेट के अंदर भी नहीं गया
था और आज हमें एयरपोर्ट के अंदर भी जाना था और एरोप्लेन  मे बैठना भी था। जो हमारे लिए ई ज्यादा खुशी का
समय था की मैं अपने कलम  से व्यक्त नहीं कर
सकता हूँ। प्रयोग टीम गोपालगंज से 04/12/2021 को रात मे पटना आया
, फिर 05/12/2021 को एयरपोर्ट जाना था, 8 बजे तक पहुंचना था । 8 बजे हमलोग एयरपोर्ट पहुँच गए हमारे लिए पहला समय
ऐसा था की गाड़ी और गाड़ी के चाभी के बिना हम एयरपोर्ट आ गए थे । वो भी अपने कंधे पर
बैग लेकर क्यूंकी वहाँ 5 दिन रहना था
| एयरपोर्ट के अंदर गया
फिर सारी प्रक्रिया हुआ। फिर मैं प्लेन के पास गया मानो ऐसा लगा की क्या बताऊँ
आसमान में कितना छोटा लगता है। और जब मैं नजदीक से देखा तो आँखें खुली की खुली रह
गई । क्यूंकी हमारे लिए अपनी आँख से प्लेन को सामने देखना ये दोनों बात आश्चर्यजनक
था। फिर हमलोग प्लेन के अंदर गए
, सूर्या सर का प्लानिंग ऐसा
था की हमे खिड़की वाला सीट मिल गया जो की सोने पे सुहागा था। जब प्लेन रनवे से खुला
उड़ान भरने के लिए जब उसका अगला मुँह हवा में उठा तो हमको बहुत ज्यादा डर लगा। कुछ
देर के लिए तो हम सोचे की जाकर बोलें की रोक दो भाई हमको नहीं जाना है
, हमे उतार दो पर ये संभव थोड़े ही था। वह कोई हमारा वाला गाड़ी थोड़े ही था की
कहीं भी रोक कर उतर गए
, कहीं भी रोक कर चढ़ गए। हमारे बगल मे
कैलाश जी बैठे थे और वो हमारी हिम्मत को बढ़ावा दे रहे थे । फिर कुछ देर बाद प्लेन
शांत हुआ तो हमारे करेजे में ठंडक आयी – 
हम पटना को खिड़की से देखा तो बड़े-बड़े बिल्डिंग हैं वो छोटे छोटे कार्टून के
तरह दिख रहे थे। कुछ देर बाद प्लेन मे हमें खाने के लिए मिला पर जो मैडम खाना दे
रही थे और वो जो बोल रहे थे हमे सुनाई नहीं दिया और मैं उनके पास मैगी देखा वही
मांग लिया
|  फिर जब
हम लोग हैदराबाद उतरे तो हमें लगा कि पटना का 5 एयरपोर्ट को मिला दे तो हैदराबाद
का एयरपोर्ट वैसा लगेगा
| हैदराबाद में हम लोग का फिर सारा
प्रक्रिया हुआ वहां एयरपोर्ट पर सामान खाने के लिए होटल और शराब का भी दुकान था
,
एक चीज़ नहीं समझ आया की क्या दारू पी कर परमिशन है एयरोप्लेन में
बैठने का
? हमारी टीम वहाँ एयरपोर्ट में फोटो खींच आए,
इस पल को देखकर बार-बार याद किया जा सकता है | हैदराबाद से फिर हम लोग फ्लाइट में बैठे और आखिरकार में और हमारी पूरी टीम
गोवा पहुँच गयी
| मैं ज्यादा तो नहीं जानता हूं गोवा के बारे
में जरूर सुना था
, मैं एक व्यक्ति का हमें नाम किया था जो कि
वह व्यक्ति अब इस दुनिया में नहीं है और वो गोवा के लोगों के दिलों में बसते थे और
इसी कारण गोवा के सीएम बने और सीएम के कार्यकाल के दौरान ही मृत्यु हो गया – मनोहर
पारिकर नाम था उनका
, मीडिया के माध्यम से सुना था | एयरपोर्ट पर गाड़ी खड़ी थी और वहां से हम लोग पंजिम गए | जहाँ हम लोगों को रुकना था उस अपार्टमेंट का नाम था – ब्लू व्हले और वहां
हमें एक बुकवर्म का बैनर दिखा
| एयरपोर्ट से पणजी की दूरी
लगभग 25 किलोमीटर था
| हम लोग रूम के अंदर गए, व्यवस्था देख कर मैं आश्चर्यजनक रह गया था और वहां 9 लोग को रुकने का
व्यवस्था था
|  ख़ास
बात यह था की हर बेड पर एक बंडल रखा था और सारे के सारे बंडल पर नाम लिखा था कि
कौन किसका बैड है जब मैं बंडल खोला तो वह सारा वस्तु उसमें था जो कि एक इंसान को
रात में सोने से लेकर सुबह उठने के बाद की सारी जरूरत की सामग्री थी
| उस फ्लैट में किचन भी था – उसमें भी नाश्ता से लेकर रात्रि के भोजन के
सामान का इंतज़ाम किया हुआ था
|  इतना केयर तो हमारे भी परिवार में कोई आता है तो हम नहीं करते हैं जितना
वहां इन्तंज़ाम किया हुआ था
| उस अपार्टमेंट में ६ फ्लैट था,
4 लोग पहले से रह रहे थे और पांचवा में हम लोग गए थे, छठा खाली था, बाहर से ताला बंद था पर एक चीज समझ
नहीं आया कि हमारे भी रूम में पानी वाला पंप का स्विच था
| क्या
पता वहां अलग-अलग पंप लगा था
| फिर हम लोग वहां से खाना खाने
गए
| फिर हम लोग सुबह तैयार हुए और बुकवर्म के लिए निकल गए |
बुकवर्म का बिल्डिंग बाहर से दिखने में ही आकर्षित था लेकिन जब मैं
गेट के अंदर कदम रखा तो ऐसा स्वागत किया गया कि क्या बताऊं मेरे शब्द कम पड़
जाएंगे
|  हमें समझ
नहीं आया कि मैं क्या कहूं
, हम लोग का स्वागत हुआ और जब हम
वहां का लाइब्रेरी देखन तो हमारी  आंख खुली
की खुली रह गई
| मैं उतना बड़ा, उतना
सुंदर
, उतना आकर्षित, इतना अच्छे अच्छे
लोग नहीं देखा था
| उनकी सारी किताबें जो लग रही थी बोल
पड़ेंगे
| वहां पर हम जिन जिन व्यक्ति से मिले मैं उनका नाम
बताता हूँ
| सारे लोगों का नाम तो नहीं पता पर सारे लोगों का
स्वभाव और अच्छाई हमारे दिल में बसा
| 
मैं कुछ ही को नाम से जान पाया क्यूंकि वहां का नाम भी हमारे
भाषा से उल्टा था – सुजाता दीदी
, नयन दीदी, अनंदिता दीदी, सीशा दीदी, इलीना
दीदी और लोगों का नाम हमें याद नहीं पर उनका चेहरा हमारे दिलों और दिमाग में फोटो
की तरह छप गया है।

 

    

फिर
हमें दो ग्रुप में बांटा गया और हमें लाइब्रेरी का सैर कराया गया और वहां की
किताबों से परिचय कराया गया
| परिचय के पश्चात हमें ट्रेज़र
हंट के माध्यम से किताबों से मिलाया गया
| इस तरह से क्लू था कि सारे
किताब को बिना खोले कोई क्लू नहीं मिल सकता है
, इस प्रकार से जोड़ा गया था जो
कि हमारे लिए अद्भुत था
|

फिर हम
लोग छत पर गए, वहां एक कोने में बोर्ड रखा हुआ था पता जो कि हमारे आने से जाने
तक का समय
, कार्य का सूची/ योजना बनाया गया था | 
उसी के आधार पर सारा के सारा कार्य को आगे बढ़ाया
जा रहा था
| इसी कार्य के दौरान हमें मालूम चला कि बुकवर्म की बिल्डिंग 115
साल पुरानी थी
, जानकर हम दंग रह गए कि पहले के इंजीनियर आज के इंजीनियर से
कितना ज्यादा समझदार और टैलेंट था उनमें क्योंकि जिस तरह आज आधुनिक समय में हमारा
देश आगे है उसके बाद भी उस तरह का स्ट्रक्चर नहीं खड़ा हो सकता है
| 115 साल
मामूली बात है
??? फिर हम लोग का सेशन शुरू हुआ, पहले परिचय किया गया फिर हम
लोग को एक-एक थैला मिला जिस पर सिलाई करना था। एक छोटा बैग मिला जिसमें सीने से
पढ़ने तक का सारा सामग्री मौजूद था। फिर हम लोग का 06/12/2021 का सेशन शाम के 6
बजे कंप्लीट हुआ। उसी दौरान हमें चाय
, नाश्ता, खाना
सारा चीज समय के साथ कराया गया। लेकिन वहां के खाना
, नाश्ता, चाय भी
हमारे यहां से अलग था। हमारे यहां के लोग तीखा खाना पसंद करते हैं। और वहां के लोग
मीठा खाना पसंद करते हैं। मीठा के अर्थ की खीर नहीं वहां नारियल के तेल या नारियल
के बुरादा ज्यादा उपयोग किया जाता था
|  पहला दिन सत्र के पश्चात हम लोग को एक होमवर्क मिला जो कि कल
हमें वहां पर
पोंगलनाम के किताब के बारे में बोलना था। हमारी टीम में 2 लोग थे –
एक विनीत जी और दूसरा मैं। सत्र खत्म होने के बाद फिर हम लोग घूमने और खाना खाने
के लिए बाहर निकले और पहला दिन समाप्त।

सत्र का
दूसरा दिन फिर सुबह उठकर नहाकर तैयार होकर बाहर जाकर नाश्ता किया
| वहां
नाश्ते में यहां की तरह जलेबी कचोरी नहीं मिलता था
, वहां पर मिलता था, इडली, मसाला
डोसा यही सब इत्यादि नाम भी हमें नहीं पता है। फिर हम लोग बुकवर्म में गए वहां पर
सत्र चालू हुआ
| हम लोग पिछले दिन का अपना अनुभव शेयर किये और उसके बाद जो हमें
किताब पर 5 मिनट बोलना था उस पर चर्चा शुरू हुआ और बारी-बारी से सभी टीम अपना-अपना
किताब के कहानी के बारे में बहुत अच्छे से रखने का प्रयास किया
|  

पर जब
हमारी बारी आई तो मैं और विनीत जी गए और बोलना शुरू किया। एक शब्द जो कि हमारे
सारे कामों को बर्बाद कर दिया वह शब्द था परंपरा। अभी
हमारी शब्द के चुनाव में गलती हुआ और सारा का सारा मेहनत बेकार हुआ। इसलिए कहा गया
है कि डिग्री से काम नहीं होता
, आज के समय में डिग्री और ज्ञान
दोनों की जरूरत है। आज भी हमें और आने वाले हमारी जिंदगी से जितना भी समय/ दिन है
मैं यह शब्द नहीं भूल सकता (परंपरा) क्यूंकि हमारी किताब पर पहला यात्रा था। सारा
कुछ लगभग ठीक-ठाक जा रहा था लेकिन यह शब्द हमारी खुशी में एक हादसा सा बन गया। पर
क्या कर सकते हैं कहा गया है- कि इंसान कोट पैंट पहनकर बुद्धिमान नहीं बन सकता है
और फटा पुराना पहनकर बेवकूफ नहीं होता। देखने में दोनों में अंतर जरूर दिखता है पर
जब बात शिक्षा की आती है तो पर्दा उठने में देर नहीं लगता । यही हाल मेरे साथ हुआ
मैं ठहरा एक ड्राइवर वो टैक्सी जिसको बात भी ज्यादा करने का सलीका मालूम नहीं है।
हाथ में किताब पकड़ कर मैं एक लाइब्रेरियन होने का प्रयास कर रहा था। पर वहां जो
लोग थे कोई हमारी तरह थोड़ी
यह-वहथा।
रियल के उनका नॉलेज था वह हमारी बातों को पकड़ लिए जिसके लिए हमें बुरा नहीं लगा।

 

हमें
अफ़सोस जरूर हुआ क्योंकि बुकवर्म टीम हमारी टीम पर लगभग 8 माह से काम कर रही थी।
उनका प्रयास कि हम अपनी समझ को विकसित करें मैं अपनी सोच को बदलूँ
, मैं
किताब की गहराई तक जाऊं
, लेकिन मैं सफल नहीं हो सका और मैं अपने साथ उनका भी मनोबल गिरा
दिया। क्योंकि जो व्यक्ति रात दिन अपना महत्वपूर्ण समय आप पर खर्च कर रहा हो उसके
बाद भी अगर कोई परिवर्तन नहीं होता है तो मन में और दिल मे बुरा लगता है। हमारे
समझ से यहां दो बात आती है (1)
, या तो मैं उनको बदलने/ समझने
लायक नहीं हूं (2) कि मैं समझाना ही नहीं चाहता हूँ । तो सुजाता दीदी हम (2) नंबर
वाले हैं आपकी कोई गलती नहीं हमने आपको ठेस पहुंचाया । आपकी मेहनत बहुत लगन और
विश्वास के साथ था और मैं आपके लगन और विश्वास पर पानी फेरा है। आपका कोई कसूर
नहीं है। हमारे यहां एक कहावत है कि- बेंग के पांव में घोड़ा का नाल ठोकने से वो
घोड़ा नहीं बन सकता है। और सुजाता दीदी परंपरा को आप ट्रेडीशन कहते हैं। आप उदाहरण
दिए थे कि हम दिवाली
, होली ,पूजा पाठ जो करते हैं वह परंपरा है, जाति
परंपरा नहीं है। और दीदी हमें लगता है कि जो दिवाली
, होली, पूजा
पाठ का परंपरा बनाया है
, वही जाति का भी परंपरा चला आया है। और जो हमें खुशियां देती है
उसे हम कुबूल करते हैं। और जो हमें तकलीफ देती है उसे नकार देते हैं। क्योंकि जाति
भी दिवाली की तरह जन्मो जन्मांतर से चला आ रहा है। दिवाली कब शुरू हुआ हमें पता
नहीं है
, होली कब शुरू हुआ हमें पता नहीं उसी प्रकार जातिवाद कब शुरू हुआ
वह भी हमें नहीं पता।
हमने भगवान से नहीं कहा कि हमें ऊंची जाति में
भेजिए और दूसरे को नीची जाति में। मैं जन्म लिया इंसान के रूप में और बड़ा  हुआ तो पता चला कि हम ऊंची जाति में हैं और
हमारा धर्म धर्म हिंदू है। मैं दिवाली मना सकता हूं
, मैं होली मना सकता हूं। पर मैं ईद नहीं मना सकता क्योंकि यह परंपरा
है। मैं मानता हूं कि मैं अभी गलत हूं
, हमारी सोच सीमित होकर रह गई। लेकिन मैं अपने आप में और आज तक के
जीवन में मैं अभी तक किसी से किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया है। क्योंकि बचपन
नानी के यहां गुजारा और वहां हम दुसाध के यहां भी खाना खाया था। और जब 2003 में
अपने गांव गया तो मुझे कुछ बताया गया और हमें जात पात का ज्ञान दिया गया परिवार से
कि किसके साथ रहना है
, और किसके साथ नहीं रहना
चाहिए। उसके बाद भी हमारी जाति का कोई मित्र नहीं बना। हमारा अपनी जाति से आज तक
भी नहीं बनता है। हमारा जितना भी दोस्त रहा बचपन से अभी तक वह ओ.बी.सी है या  एस.सी है। हमारे जीवन में एक सूर्या सर जो जनरल
में आते हैं और मैं उनका सम्मान करता हूं। ऐसा इसलिए नहीं कि मैं प्रयोग में हूं
, जिस समय मैं सर से जुड़ा था उस समय प्रयोग का जन्म
भी नहीं हुआ था और हमें लगता है कि सभी उस समय प्रयोग के बारे में नहीं सोचे होगे
। और फिर इसी तरह दूसरा सत्र का दिन खत्म हुआ।

 

हम लोग रोज की तरह तीसरे
दिन भी बुकवर्म में पहुंचे
| हमारी
जो कल की गलती थी उस पर सुजाता दीदी ने (पोंगल) किताब के लेखक बामा के जीवन से
जुड़ी एक किताब दी और बोले हिंदी में ट्रांसलेट करके पढ़ो
|  मैं
पढ़ा और जाना की बामा जी ऐसे किताब क्यों लिखें। सत्र के दौरान ही दूसरा दिन हमें
नयन दीदी के पति से मिलने का मौका मिला। हमारा सौभाग्य था कि वह अपने काम के लिए 8
दिन के लिए गोवा आए थे। सत्र के दूसरा दिन ही हमें सुजाता दीदी के पति से भी मिलने
का मौका मिला था। वह एक डेंटिस्ट है और वे बहुत खुले पन्ने के तरह इंसान है। क्यों
लगा यह मैं आगे बताऊंगा। सत्र का तीसरा दिन हमें दूसरे दिन में एक बुक डिस्प्ले
लगाने का कार्य मिला था। और लंच के पहले ही हम लोग डिस्प्ले लगाने का काम शुरू कर
दिया था। उसमें हमारी फोकस रहा हमारा डिस्प्ले
दोस्तीथीम के ऊपर आधारित था।
टीम में मैं
, अनीता जी, कैलाश जी और आलोक जी थे।

      

दोस्ती का चयन हमारा ही
था। और उस पर किताब को हम सभी ने मिलकर खोजा और एक साथ मिलकर हम लोगों ने कार्य
किया। हम लोग अपना भरपूर योगदान दिया डिस्प्ले को खास बनाने में। उसके बाद लंच हुआ
और फिर उसके बाद कुछ चर्चा हुआ और हमें एक समुदाय लाइब्रेरी देखने का मौका मिला।
समुदाय लाइब्रेरी में भी जाने के लिए 2 टीम बना और मेरी टीम में मैं
, आलोक जी, दुर्गा जी और विनीत जी थे। हमने एक पहाड़ के सटे गांव में गया और
वहां बीच यानी समुद्र के किनारे हमारा सत्र चला। हमारे सत्र में 9 बच्चे थे। और
हमारा सत्र ठीक-ठाक चला। सत्र का चलाने का कार्यभार शीषा दीदी और एक और दीदी थे
जिनका नाम हमें याद नहीं है। सत्र अच्छा रहा सत्र के बाद हम लोग अपने किताबों के
घर बुकवर्म के यहां आ गए। और तब तक 6:30 हो चुका था और हम सारे लोग को अपना घर
जाना था। तो सुजाता दीदी के पति जिनका नाम तो हमें याद नहीं आ रहा है
, लेकिन कुछ कुछ याद है फेंडी या हाँ, फर्डी था उनका नाम। फिर हमारी पूरी टीम उनके साथ
दो गाड़ी में गया। एक को खुद चला रहे थे और दूसरा चलाने का मौका हमें मिला । मैं
गोवा में गाड़ी चलाया। थोड़ा ही दूर चलाया वहां का भीड़ पता ही नहीं चलता। एक शांत
गाड़ी आ रही है जा रही है पर एकदम शांत हमारे यहां जैसे पें -पा टें- टा नहीं
ज्यादा सुनाई पड़ता है। हम लोग उनके साथ एक बीच में गए हालांकि रात हो चुकी थी फिर
भी वह हमें घुमाने ले गए।

यह बहुत बड़ी बात है
हमारे लिए हम लोग से बात भी कर रहे थे। और हमने फोटो भी खिंचवाई उनके साथ फिर हम
लोगों को एक क्लब में ले गए
, वह
कहते हैं मैं यहां 1995 से मेंबर हूं। उस क्लब को देखना हमारे लिए दूर की बात थी
पर अंदर ले गए वहां हम लोग साथ में खाना भी खाया और खास करके मैं पर्सनल खुद भी
उनसे बहुत बात किया
| यह हमारे जीवन काअद्भुत
पल था। इसलिए हम उनके बगल वाले कुर्सी पर बैठे थे। शुरू में तो मैं हिचकिचाया पर
फिर भी मैं उनसे बात किया और सबसे बड़ी बात यह है कि जो व्यक्ति अंग्रेजी में बात
करते हैं
, घर पर, ऑफिस में, सारे जगह पर वह हमसे हिंदी में बात कर रहे थे और सबसे ज्यादा
ताज्जुब की बात यह है कि वह हमारे भाषा को समझ रहे थे और उसका उत्तर भी हमारी भाषा
में दे रहे थे। जिस तरह से मैंने उनके बारे में सूर्या सर से सुना था उनके रहन-सहन
के बारे में तो मैं कल्पना भी नहीं कि वे पर्सनल हमसे बात करेंगे उनका तो छोड़िए
सोचता था कि मैं उनके सामने कुछ बोल पाऊंगा
| फिर बातचीत के दौरान मैं उनके साथ अपनी समस्या
को भी शेयर किया। उनका बड़ा आसान और प्यारा सा जवाब था कि प्रयास करने से सब कुछ
संभव है। ठीक आप दूर रहे हो पढ़ाई से पर अब तो कर रहे हो
, तो अभी शुरू करो। इस तरह हम लोग का तीसरा दिन
समाप्त हो गया और हम लोग स्थान पर आ गए। सूर्य सर उसी दिन क्लब से ही हम लोग का
साथ छूट गया था। वो उसी रात पटना के लिए निकल गए थे। उनका गोवा एयरपोर्ट से 2:10
रात में फ्लाइट था ।  

 

फिर सत्र का चौथा और
आखिरी दिन आया और हम लोग रोजाना की तरह सुबह तैयार होकर
8:45 में
बुकवर्म पहुंच गए और हमारी सत्र चालू हुआ। हम लोग अपने-अपने
3 दिनों
का अनुभव शेयर किया और फिर जो हम लोग समुदाय लाइब्रेरी में गए थे उसका भी फीडबैक
और अनुभव को शेयर किया। इसके बाद हमलोगों को टीम (
1) और टीम
(
2) दोनों को एक दूसरे की डिस्प्ले को जाकर देखने को
कहा गया। और वहीँ लगा था उसका हम लोगों ने भ्रमण किया। उसके बाद हम लोग एक दूसरे
का फीडबैक दिया और लिया
, सीखा की क्या काम करना चाहिए, कैसे किया और कैसे करना
चाहिए। उस पर चर्चा हुआ और इसके बाद और हमारा सत्र खत्म हो गया और हमारी टीम की
कुछ साथी घूमने चले गए और मैं
, विनीत जी और कैलाश जी
लाइब्रेरी में जाकर किताब पढ़ने लगे
, नया किताब लेने के ख्याल
से।

फिर कुछ देर बाद सुजाता
दीदी आई और हम लोगों से कुछ बात करने लगी। बात निकला जातिवाद पर उनका कहना था कि
वे जाति पर रिसर्च कर रही हैं
, तो हमसे जाति पर कुछ बात
करना है। और हम लोग तैयार हुए और चर्चा शुरू हुई। एक कैटेगरी बना मुख्य जाति के
बारे में लिखा गया कि नंबर एक पर कौन आते हैं। दो नंबर पर कौन आते हैं इसी प्रकार
एक सूची बना पर कहूं तो-

GEN मे भी 4/5 जाति
है
, OBC -1, OBC -2, SC,
ST

फिर इस पर दीदी और हमारे
साथी का खूब चर्चा हुआ और लास्ट यही हुआ कि बातचीत करने का पता चल जाता है कि कौन
क्या है।  अगर मैं जनरल नंबर पर आता हूं तो
मेरा क्या कुसूर है। अगर बात आम की है तो इसमे मैं क्या कर सकता हूं। दीदी इसमें
मैं क्या करूं
? सामने वाले को कभी छोटा या नीचा नहीं देखता मैं ऐसा करने का कल्पना
भी नहीं कर सकता। पर हमें लगता है कि मैं सफाई कितना भी दूँ मैं अपने आप को
GEN
से ST मे नहीं ला सकता। यह मेरा अधिकार में नहीं है।
इसीलिए तो हमने एक शब्द बोला था परंपरा जोकि सारी मेहनत पर पानी फेर दिया। यह
हमारी समझ से परंपरा ही तो है। कि मैं अपना धर्म चेंज कर सकता हूं पर जाति नहीं
,
क्यों ? ऐसा क्यों है कि मैं जाति चेंज नहीं कर सकता?
हमें कोई जवाब दे सकते हैं। इस चर्चा के बाद हम लोग भी अपने फ्लैट
पर गए। वहां से कुछ देर बाद थोड़ा देर के लिए घूमने गया उसी रात हमारी फ्लाइट थी।
2:10
am
में तो हम लोग और हमारी टीम के सारे साथी जमा हुए। लगभग 11:00
p.m 
में टैक्सी पर बैठकर लगभग
12:00 बजे गोवा एयरपोर्ट पर आ गए। पटना वापस आने के
लिए और जिस तरह फ्लाइट में डरते गया था लेकिन उधर से फ्लाइट में अपने अपने घर को
प्रस्थान किया गोवा टू पटना की यात्रा समाप्त हुई।

मेरे लिए यह ज़िन्दगी का
सबसे बढ़िया अनुभव रहा है जिसे हम आखिरी सांस तक याद रखेंगे
|

 

 नोट: यह ब्लॉग प्रयोग के नए साथी, विश्वनाथ कुमार उर्फ़ टिंकू द्वारा लिखा गया है और इसे हूबहू टाइप कर दिया गया है | टिंकू 18 साल के उम्र से ही ड्राइवर के रूप में काम करने लगे थे और प्रयोग से इनका जुड़ाव तबसे रहा है जब प्रयोग की शुरुआत 2013 में हुई थी पर किताबों की दुनिया की उनकी सैर 2021 में बुकवर्म के साथ हुई चर्चा एवं कार्यशालाओं के दौरान शुरू हुआ | प्रयोग टीम इसके लिए बुकवर्म की सदा आभारी रहेगी | 

 

 

 

In conversation with Shashi: a co-traveller’s journey so far..


“The
Prayog library had an impact in my mind so much so that despite not so much
interested into studies in my childhood days, I channelized my energy into
reading. I was so inspired by the interactions and activities that I still feel
its impact in my life. I remember talking to Abhishek bhaiya …….”

       
Shashi Ranjan   

 Within
a few months of start of the Prayog library in 2013, we saw hundreds of
children turning up at our community site. Children would come to read,
interact, participate in activities. There were discussions happening around various
concurrent issues and mostly led by them only. Shashi happens to be one of the
members of Prayog library from the initial days and we are glad to learn about
his whereabouts. Read his interview with Prayog team where he shares about his
childhood memories, his challenges, his reflections around the library and
more. In a series of interviews, we will capture journeys of our other long
time members.     


Prayog: Hi Shashi! Glad
that you agreed for this interview. Tell us something about your childhood –
where did you grown up, what was your family background like, how was the
socio-cultural background of your village like?

 

Shashi: I’m glad
too! I don’t have many interesting childhood stories to talk about but it
was fun; I remember playing with my cows, naming them, and lots of game time. I
grew up in my village only. I started schooling when I was 3 years old. My
school was only 50 steps away from my house. When I was born, my father had
lost his job so unlike my elder siblings I did not get the chance to see the
city until I completed my high school.

 

My father was a college drop-out and mother dropped out
after high school. I belong to a lower middle-class family, my father had a job
in a Pharma company but when I was born he lost his job and started a small
business with all his savings and then opened a grocery store in the local
village market (which still runs till this date).

In my primary school days, I remember one of our teachers
who belonged to Scheduled Caste was not accepted as Headmaster by villagers.
So, you can think how difficult my village. As a child, I was disturbed by all
this. 

 

Prayog: What are you currently
doing? What has been your educational journey like?

Shashi: I’m currently
interning for a healthcare company as an operation analyst. My educational
journey has been a smooth ride so far. From Primary School Khalgaon (Gopalganj)
to Delhi University with only a glitch coming last year when I wasn’t selected
for IIM Calcutta due to lack of work experience reasons but I’m working on that
may be next year I will be up to the mark.

 

Prayog: Growing up, what
were the challenges that you faced in life, in particular related to your educational
journey?

Shashi: One of the biggest challenges I have faced is lack
of guidance. One way to mitigate this is by learning from others’ experience in
turn exposure to different people or things but I didn’t have that throughout
my journey.

 

Prayog: When and how did
you get to know about the Prayog library?

Shashi: When I was in Class 9th, initially one
of my friends told me about the library and activities/ events that took place
there.  There was a group that used to visit the library regularly
and they always talked about quiz events and I was very fond of quizzes. In our
discussion, they were more expressive, thoughtful and they gave really
interesting analogies. I particularly remember talking to Vikash, when I asked
him what is helping him with his public speaking skills he told me about the
library and how the same peers conversation and books were helping him. 

This really motivated to make
my first visit there.

 

Prayog: What were your
initial thoughts about the library?

Shashi: That was the first
time I was going to see a physically existing library prior to that I had just
heard about it. So initially I couldn’t gather any thoughts and we went to
visit the library.      

      

Prayog: Can you mention any memory of the library
experience that is still close to your heart? What did you like the most in
that library?

Shashi: I had many wonderful experiences till I was there on my
first day at the library, when I participated in the first quiz, essay writing,
visit to Jalpaiguri and Bhutan, meet-ups with really interesting
people. When some people who had done really well come to visit us and
share their experiences with us.

Let me be honest, I was never
into reading before visiting the library. It was a good idea to go there, it
taught me what books can do to you. That’s where I picked up reading and I’m
holding on to that till this time.

I remember talking to Abhishek
Bhaiya, the co-founder of Prayog. I being a less confident guy, less expressive
and in academic the mild one but that 20 odd minute conversation with him was
so impactful for me. He got me into Sudoku, his tips were amazing. This was 7-8
years ago and I still remember everything!

 

Prayog: Can you remember anything that you did not
like or would have thought to be missing in that library?

Shashi: I will pass on this question! (for me what was
present at time was enough)

Prayog: Any thoughts on
whether the library had any influence on other children who were coming with
you? Can you share some examples?

Shashi: I’m very disheartened to inform you that I lost all my
connection when I switched my board after 10th. I did not have a
mobile phone to stay in touch with all of them but those with whom I’m in
contact are doing really well. Once I will rebound with them I will let
you know…

 

Prayog: What are your future plans?

Shashi: I don’t think too far in future but hopefully in
next two year of time I want to meet the work ex requirement to get a seat in
IIM C for PGDM in Data Science. And will plan according to situation after
that 

Prayog: Any suggestion
for the library works to improve, especially for children?

Shashi: More reach to
children,
 involvement of digital platform would be very nice and
helpful (I forgot to mention this in my educational challenges but it was right
there.) 
 


Shashi
is 21 now. He has Graduated from Delhi University and was the topper of his
batch. 
He is
a versatile Data Analyst with experience in interpreting and analysing data. He
wants to pursue his dream Course in IIMs of his choice. We wish him all the
best in his journey.

 If you
want to know more of Shashi, you can ring/write to him at:


+91-8700919857

shashiranjan10@outlook.com

* this
interview was conducted by Surya Prakash from Prayog team. You may wri
te to him
at surya@prayog.org.in 


A few pics of Shashi (in red t-shirt) from his library days  


A trip down memory lane

 

                                        (R-L: Sanya, Surya, Aakanksha, Nisha, Anshi, Prinshu)

Just this Thursday, some of the children who were a part of our first community library during 2013-2016, wanted to meet me to get updates on Prayog – and we discussed for more than 2 hours at the same place where the community library was located. We have always remained connected and they are the real well-wishers of Prayog!

I was pretty astonished with their revelation of what Prayog has done to their lives and when I told them that at that time (they were all in Class 7th or 8th back then), we did not have many books (see, I have this limitation with collection of a library and time and again, I keep repeating the same mistake) and you all would not get to read in the library – they just gave me a different response – they shared that they read a lot of books from Prayog then. They shared that the writing activities that they did back then is helping them now. They shared that when there were debates back then, it is helping them now. They had so many interactions with people from different spheres of life (my friends from across the country volunteered and visited the library and interacted with children) and they said that each interaction was afresh in their mind and life. They said that ‘exposure visits’ helped them to see the world – their first exposure visit was to Parivartan for seven days. 

Aakanksha shared that she got a chance to anchor a session with more than 200 children from DPS Patna and teachers in the exposure visit and that has given her so much confidence in life – this was her first such experience when she was only 12. She wrote and said her mind out during her library time at Prayog. She said that she has become a good decision maker and has her own  opinion – her family wanted to opt for a B.Ed course but she chose a B.Tech in Food technology course from Allahabad University. 

Sanya is doing B.Ed now and she said that we just enjoyed the openness and discussion and activities where children’s voices were heard – and see so much relates to what her Course work mentions. But I also mentioned that, it all depends on practice – you may go through a Course but practicing it is important. Sanya loves poetry and is an upcoming poetress where she is breaking gender stereotypes. She credits this openness to her library days in Prayog. 

Nisha dropped out after Intermediate but wants to pursue Graduation, we want to support in this journey of hers. Anshi, and I remember right from her early childhood, wanted to become a lawyer. So, this year, she appeared for both B.Ed and LLB entrance. She cleared B.Ed entrance but despite push from her family, she did not opt for it. Unfortunately, she could not not clear LLB entrance exam..but she is confident that she will clear it next time! Prinshu has completed her Graduation and pursuing PG.

They just took me to a drive down memory lane and each one of us got so emotional. They had a commitment and what they said was even more intriguing for me – they said, “we all are Prayog and even if the library is not-functional now, we commit to make it functional”.

I know it’s not that easy but I just was so happy listening to this that I did not ask them anything further – may be sometime I will ask them. They also pushed me that children should not be deprived of library and they also shared that they so very proudly said to their friends, relatives and others back then that their village has a library and activities that they were participating in. Back then, we had more than 500 members and children from 12 villages were a part of it with a daily turnover of 70-80 children and they would just not like to return to their homes even late in the evenings. Their parents also trusted us so much that they always allowed them to visit the Prayog library site. 

It was that kind of emotion for me – if I say that I got some kind of kick in my brain, it was all because of these children and they being there. The kind of satisfaction and happiness that I had during 2013 – 2016, I have never had that kind in Prayog after that. I have countless stories from those days and sadly I do not have as many stories from the work that I am doing now. This was the genesis and this place has that kind of importance for me and Prayog. I want to re-start this but I am not sure if I have the same energy – I pumped in all my energy, physical and emotional, here back then and I know a replica of the same kind may not be possible. It was so tough to reach the site then – 8 hours drive from Patna because of bad roads and I remember many times while returning back to Patna, I would just cry out of happiness while driving back and I did not know how I used to reach back.


Libraries do create an impact, these small happening with the children are the impact stories for me!

मेरे गाँव में कोरोना के समय बच्चों के लिए पुस्तकालय की शुरुआत

2020 के लॉकडाउन के दौरान मेरा चयन प्रयोग संस्था मे हुआ जो बच्चों के साथ पुःतकालय आधारित कार्य करती है | हमारे साथियों द्वारा हमारा प्रशिक्षण भी चल रहा था पर सभी स्कूल बंद थे | खेम मटहिनिया नाम का एक गाँव है जिसमे हमारे साथियो के सहयोग से लॉकडाउन के दौरान पुस्तकालय सत्र संचालित किया जाता है जिसे भी देखने को मिला और पहले तो हम सिर्फ कुछ दिनो तक देखे कार्यो को समझे प्रशिक्षण के बाद हम भी बच्चों मे घुल मिल गए | चार महीने बाद ‘बुकवर्म’ संस्था द्वारा हमारा ऑनलाइन एवं ऑफलाइन प्रशिक्षण हुआ | इस बीच स्कूल भी खुला और हम स्कूल मे भी पुस्तकालय सत्र संचालित करने लगे मगर वो भी कुछ दिन तक ही चला फिर अप्रैल 2021 में लॉक डाउन लग गया | फिर से स्कूल बंद हो गए और तब हम सभी साथियों ने तय किया की हम सभी एक-एक सामुदायिक पुस्तकालय खोलेंगे | मैं अपने भांजा से बात की जिसका नाम देवांश है, उसे पुस्तकालय के बारे मे नहीं पता था | मैं उसे बताई की हम तुम्हें कहानी की किताब देंगे तुम उसे एक सप्ताह पढ़ोगे फिर उसे जमा करोगे और दूसरी किताब लोगे |फिर एक दो किताब उसे पढ़ने को दिया और वह किताब उसे बहुत अच्छी लगी | वो अपने दोस्तो को लेकर मेरे पास आया | बच्चो को पुस्तकालय के बारे मे बताया और उसी दिन मैंने अपने गाव के कुछ लोगो से बात किया तथा सभी ने अपनी सहमति जाहीर की वे अपने घर के बच्चों को पुस्तकालय से जोड़ना चाहेंगे | मगर कुछ आदमी थे जो उन बच्चो के माँ – पिता तों नहीं, पड़ोसी थे और उन्होंने कहा सभी लोग करोना मे घर से बाहर नहीं निकलने दे रहे है और तुम बच्चो को किताब दोगी? मैं उन्हें तो कुछ नहीं बोली पर अपने साथियों से इस बात को साझा किया | हमलोग कोरोना से जो खलबली मची थी उसे कम होने का इंतजार करने लगे और अपने कार्यो मे ऑनलाइन के माध्यम से जुड़े रहे – किताबें पढ़ना, उन किताबों पे चर्चा करना और इस कार्य मे बुकवर्म टीम के लोग भी गोवा से जुड़े रहे | जब बिहार सरकार ने अनलॉक की घोषणा की और साथ ही गाँवों में कोरोना का खौफ और संख्या कुछ कम होते दिखा, तो हम बच्चो तक पहुँचने का सोचने लगे | 

 इसी बीच बच्चे भी बराबर आते रहे और पूछते रहे की किताबें कब मिलेंगी? पुस्तकालय कब खुलेगा? मैं उन्हे बोलती रही बहुत जल्द और फिर वो दिन आ ही गया | विगत 10 जून को प्रयोग के सभी साथियों ने तय किया की अब समय आ गया है की हम बच्चो तक पाहुचें | मैं 11 जून को सुबह –सुबह उठ कर अपने गाँव माधोमठ चौच्चका और बगल के गांव कवलाचक के लगभग पचास घरो मे गयी और वहां बच्चों और उनके माता – पिता से बात किया पर किसी भी बच्चो के माँ पिता ने मना नहीं किया | सभी बच्चे बहुत उत्साहित थे ! मैं उन्हें बोल कर आई थी की हमारे कुछ और भी साथी है जो आप सब के घर आप सभी से मिलने आज आएंगे |सभी साथियो को फोन करके समय पर आने को बोली और सभी साथी समय के अनुसार हमारे घर पहुंचे और वही से हम सब एक साथ बच्चो के घर जाने का प्लान कर रहे थे | सभी के आने के बाद हम निकल ही रहे थे की तीन-चार ग्रुप मे 15-20 बच्चे आ पहुंचे |बच्चो को लेकर हमलोग उनके माता-पिता से मिले उनसे बात करने पे की अभी के समय मे बच्चे क्या कर रहे है लगभग सभी का यही कहना था की – 
“बच्चे खेल रहे है और इधर उधर घूम रहे हैं | स्कूल तो बंद है तो बच्चे क्या करेंगे? जो पढ़ रहे थे वो भी भूल गए हैं |” यह पूछने पर की आपके बच्चों को हम किताबें दे तो वो पढ़ेंगे और आप उन्हे पुस्तकालय भेजना चाहेंगे तो सभी के माँ-पिता ने सहमति जाहीर की और बोला की आप लोग पुस्तकालय खोलिए, हमारे बचे पढ़ेंगे तो हमे भी खुशी होगी – हमे कोई आपत्ति नहीं है |

टीम के सभी साथी बहुत खुश थे, हम लोग ऑफिस आ गए और सभी ने अपना –अपना अनुभव साझा किया | एक सप्ताह मे हमारा सामुदायिक पुस्तकालय सत्र माधोमाठ मे भी शुरू हो जाएगा | यहां बच्चो के संख्या के अनुसार हो सकता है या दो गाँव है तो दो पुस्तकालय खुलेगा | बच्चे बहुत उत्साहित थे और आज तो मेरे घर गाँव की दो औरतें भी आई थी जो उन्ही बच्चों में किसी की दादी थी और किसी की माँ थी | वे पूछने आई थी की वे अपने घर के बच्चों को कब से भेजना शुरू करें? मैंने उन्हें साझा किया की बस, दो से तीन दिन और, उसके बाद पुस्तकालय शुरू हो जाएगा | गाँव के सभी बच्चे इस पुस्तकालय में आकर अपने मन पसंद की किताब पढ़ पाएंगे और घर भी ले जा सकते हैं | 

 मुझे पता भी नहीं था की मैं यह सब कर पाऊंगी, वह भी इतना जल्दी | अभी पिछले साल तक तो मैं यह सब सोची भी नहीं थी कभी पर आज बच्चों के साथ काम करने में मेरा मन इतना लग गया है की अब और कुछ नहीं सूझता है | मुझे पुस्तकालय से जुड़कर बहुत ख़ुशी है और यही ख़ुशी मैं अपने समुदाय के हर बच्चे -बच्चियों की आखों में देखना चाहती हूँ |


* इस ब्लॉग को रागिनी ने लिखा है | रागिनी पिछले 9 महीनों से प्रयोग के साथ जुड़कर बच्चों के साथ काम कर रही हैं | बच्चों के साथ बात करना, कहानियां सुनना और सुनाना इन्हे बहुत ही पसंद है | अपने मेहनत और टीम के साथ चर्चा करते-करते आज इनकी किताबों के प्रति समझ बढ़ी है और ये अपने समुदाय के बच्चों तक पुस्तकालय की पहुँच बनाने की कोशिश में लगी हुई हैं | रागिनी को आर्ट वर्क में बहुत ही मन लगता है और सिलाई, कढ़ाई एवं पेंटिंग में वो हमारी चैंपियन हैं ! 

Back to the Schools

 

PRAYOG had
been working with 18 Government schools in Gopalganj since 2017, to ensure that
all children enjoy reading and giving them access to diverse children’s
literature. Like the entire world, the pandemic struck our work as well and we immediately
started a community library for a group of children, all going to one these
schools. Well, that was a different experience but today, we are writing to
share some of our recent experiences when the schools have re-opened and
children have started to come to the schools.

We started
by re-visiting the schools and interacting with the teaching community. The
Principal of Upgraded Middle School, Sherpur immediately responded and shared
how sad the teachers were because of children’s absence in the school for a long-long
time. He asked us to re-start our library program. Before the lockdown, a
library room was in place in the school with books which were available from
the school as well as Prayog’s support.

When we
went inside that room to just have a look at the status of books, we were a bit
surprised initially but then also realized that we need to immediately work on
this – the books that were displayed along the walls had gotten moist and there
were signs of termite getting into these. This was the room which was painted
and designed by the children of the school as their ‘library’. Had children
been there in the school, would the books have been in such a shape? Absence of
readers had just moulded these books into some unusual form and that’s so sad. Why
were the schools closed for such a long time? Well, it had rained heavily this
year and hence the condition of these books was expected.

Children helping in getting the books soaked in sunlight

When our
team visited the school, the next day, we were better prepared. We took out all
the books one by one to the sunshine outside and let these books dry in the
nature’s lap. We then pasted papers over each of the wooden shelves along the
wall. That helped us realize how important it is to look back into the place
where we are keeping the books. Children helped us in this as well.

They were all
emotional as we were meeting them for a library session after a very long time.
We had planned something for them but before that we just reflected around what
they did when they were not coming to their school? Their responses and
questions left us bedazzled for a while but we cannot dig into the past and wanted to move ahead. Covid 19 had already affected their studies but now that they
are back to their school, the show must go on..

On our
first day, we had planned for a guided drawing session based on a story called “Basawa
and the Dots of Fire”
. Around 40 children from Class 7th and
8th just listened to a part of the story and then got engaged into drawing
whatever image that came to their mind. This drawing session extended for
almost half an hour and what fabulous interpretation of ‘text’ came up in the
form of drawing – each child displaying a unique artistic work! Such is the power
of imagination!

Looking at
their drawings, the teachers of the school were excited with what the children
had just displayed and such immense creativity!

(children showing their drawings, their own imagination and understanding)

 

* this blog has been compiled with the inputs from our team members – Ragini, Anita, Kailash and Binit


“कौतुहल” – Covid 19 के समय में बच्चों के जीवन में लाइब्रेरी का महत्त्व

 पिछले डेढ़ महीने से हम लोग लाइब्रेरी सत्र का सञ्चालन खेम मटिहनिया गाँव में कर रहे हैं | हर सत्र के बाद हम ऑफिस पर आकर उस दिने के सत्र के बारे में चर्चा करते हैं | बहुत ही दिलचस्प observations सामने आते हैं बच्चों के साथ मिलकर बात करने पर | इस ब्लॉग में मैं एक ऐसे ही post session चर्चा के के कारण हुए बदलाव के बारे में साझा कर रहा हूँ | 

उस दिन लाइब्रेरी सत्र के दौरान बच्चों के तरफ से जो प्रश्न आये थे, उनके बारे में चर्चा किया और तय किया की बच्चों से किताब लेते समय किताबों को अच्छे से देखेंगे तथा किताब के रखने के तरीके पर हमेशा चर्चा करेंगे | हमने तय किया की उनसे बात करते हुए पूछेंगे की उन्हें सबसे अच्छा कहानी कौन सा लगा और क्यों ? अगले सत्र में हम पहुंचे तो हमने देखा की बच्चों की उपस्थित बहुत अच्छी थी | पूरे सत्र में हमें  बहुत अच्छा लगता है की बच्चे एक दूसरे को अपनी कहानी पढ़ने के लिए बोल रहे हैं जैसे “आज आप यह कहानी किताब लेकर जाईयेगा, इस कहानी में बहुत राज़ है” | जब भी हम ऐसा कुछ सुनते हैं तो बहुत खुश होते हैं की बच्चे आपस में ‘बूक टॉक’ खुद से कर रहे हैं | हमने किताबों का प्रदर्शनी लगाया और इससे पहले बच्चों ने अपने पुराने किताबों को जमा किया | सभी बच्चे बहुत खुश थे पर सबकी नजर किताबों के प्रदर्शनी पर था और हमें लग रहा था की वे अपने-अपने किताबों को मन ही मन चयन कर रहे थे की आज उन्हें कौन से कहानी किताब ले जाना है | उनके अंदर किताबों के प्रति इतना प्रेम देखर मैं बहुत खुशा था |  

फिर उनसे चर्चा करते हुए कहा की आप अभी तक कितने कितबे पढ़ चुके है ? बच्चों ने कहा की 5 या 6 किताबे पढ़ चुके है | जब उनसे पुछा गया की उन्हें  सबसे अच्छा कौन सा किताब लगा तो उन्होने कहा की सभी किताबे बहुत अच्छी है | इस प्रश्न को हमने थोड़ा और आसान किया और पुछा की यदि उन्हें एक ऑप्शन दिया जाये की इन 5 या 6 किताबों में से सबसे अच्छा कौन सा लगा तो बच्चे शांत हो गए और सोचने लगे | कुछ देर बाद एक बच्ची मनीषा ने कहा की मुझे ‘मोनिका’ कहानी बहुत पसंद है | इस कहानी में मोनिका के बारे में बताया गया है की ससुराल जाने के बाद उसके साथ क्या होता ? अगर वह काम नहीं करेगी तो उसे खाने को नहीं मिलेगे, इसके चित्र मुझे बहुत अच्छे लगते हैं और मोनिका क्या करती है यह भी अच्छा लगा | आलोक ने बताया की ‘राज और कियांग’ किताब मुझे बहुत अच्छा लगता है | इस किताब में प्रकृति के बारे में बताया गया है और मुझे प्रकृति से जुड़ी कहानी पढ़ने में अच्छा लगता है | सुलोचना ने ‘मितवा’ किताब के बारे में अपने अनुभव को साझा करते हुए बताया की इस कहानी में मितवा ने अपने पिता की जान कैसे बचाई, यह मुझे बहुत अच्छा लगा | करिश्मा ने ‘मीता के जादुई जूते’ के बारे में बताया की इस कहानी में मीता अपने दोस्तो की कैसे मदद करती है, यह बहुत अच्छा लगा | सभी बच्चों ने एक कहानी के बारे में अपना अनुभव साझा किया | वे अपने अनुभव को साझा करके बहुत खुश थे | बच्चो के अनुभव सुनकर हम लोग भी  बहुत खुश था की वे कितने सरल तरीके से कहानी के बारे में बताये और कहानी को खुद से जोड़कर भी देख रहे हैं | कहानी के प्रति उनकी समझ को देखर प्रयोग टीम भी बहुत खुश है | 

चर्चा के दौरान बच्चो ने साझा किया की इस किताब को घर में सभी लोग पढ़ते है | हम लोग कहानी को पढ़कर घर में सुनाते है |  यह सुनकर तो मानो हमारे  मन में मोर नाचने लगा की हम तो एक बच्चे को किताब दे रहे है और यह किताब पूरे समुदाय तक बच्चों के माध्यम से पहुँच रहा है! उसके बाद उनसे साझा किया गया की अगले सत्र में उनसे मिलने हमारे दो और साथी आएंगे, बच्चे बहुत खुश हुए की उनसे मिलने कोई आ रहा है | बच्चो से पुछा गया की क्या वो अपने लाइब्रेरी कार्ड को एक नया रूप दे सकते हैं? सबने बोला की आप ही कुछ तरीका बताइये की कैसे हम कार्ड को अच्छे से बना सकते है | हमने अपने प्रशिक्षण कार्यशालाओं में कई प्रकार के लेन देन कार्ड देखा है और उनसे वो अनुभव साझा किया | बच्चे बहुत  खुश हुए और ऐसा लग रहा था की सबमें लाइब्रेरी कार्ड को बनाने का एक होड़ लगा हुआ है | 

सत्र में ही चर्चा के दौरान बताया की अगले सप्ताह में शामिल होने वाले कुछ नये किताबों का बूक टॉक किया गया | जैसे ‘एक लड़की जिसे किताबों से है नफरत’, ‘माछेर झोल’, ‘मीतों बकरी’ इत्यादि | बच्चों को इन किताबों के बारे में भूमिका बांध गया और अब वो नए किताबों के बारे में सोचने लग गए | किताबों के प्रति उनके झुकाव को बढ़ाने के लिए भूमिका की बहुत अवश्यकता होती है | बच्चों के चेहरे पर हमने एक अलग ही खुशी महसूस की जो मानो ऐसा था की सबके मन में यही बातें चल रही हैं की किताब अभी क्यों नहीं लाये? अपने मन में उन कहानियों के बारे में सोचने लगे की कौन सा किताब उन्हें अगले बार लेना है | 

हमारा अनुभव कहता है की यह जिज्ञासा ही उन्हें अगले सत्र में आने के लिए प्रेरित करता है | आगे क्या होगा ? नई किताबों के प्रति बच्चों का प्रतिक्रिया कैसे रहा ? बच्चों के तरफ से किस प्रकार के प्रश्न आएं ? इन बातों की चर्चा हम अगले भाग में करेंगे | 

Note: इस ब्लॉग को प्रयोग के सदस्य, बिनीत रंजन ने लिखा है | सामुदायिक पुस्तकालय के इस प्रयास को कुचायकोट प्रखंड के खेम मटिहनिया गाँव में किया जा रहा है जो गंडक नदी के किनारे बसा हुआ है – अभी तक >70 बच्चे इससे जुड़े हैं और नियमित किताबों का लेन देन कर रहे हैं | 64% भागीदारी बच्चियों की है और इसमें भी कक्षा 6 से 8 (early adolescent age group) से ज़यादा रुझान है | क्या कोई ख़ास वजह हो सकता है, शायद इसे हमें और बारीकी से समझने की ज़रूरत है | 

A ‘beacon of hope’ – a community library experience in the midst of a pandemic

1.    
Background

We just need to give children an opportunity to be
themselves! There is an importance of giving freedom. Freedom to chose, to
read, to express…we realized this much more during the ongoing
pandemic. Stories need to reach out to children and PRAYOG recently started
a community library for children in Khem Matihaniya village of Gopalganj. But
this did not happen in a single day, a lot of efforts, thinking, preparation
and discussion happened to start this. 

PRAYOG works in rural Bihar and extends its operations
in Kuchaikote block of Gopalganj district. Had it been normal times, we would
have done our normal activity – strengthening library and activities around it
in a few select Govt. schools which we have been doing since 2017 with the
approval of then District Collector, Sri Rahul Kumar.

2.    
Problem – what do we do?

But the pandemic opened up a pandora’s box – full of
challenges. Challenges not only to us but when we look at it from the lens of
children, especially the girl child – what must be happening to them, what
socio-emotional difficulties children might be going through and are we doing
enough? The entire world is working to mitigate the health and livelihood
issues but what about education? What about children in rural areas, especially
in a State like Bihar where most of the children haven’t seen the face of Govt.
schools for the past 6 – 8 months? How many households in rural Bihar will have
a TV or an android mobile hand set with capacity to recharge for the costly
internet packs – a bare essential to continue with digital education? And is
digital education the only way out? What exactly is the purpose of
education? Is it not that the child is free to dream, for each and everything,
is able to think – enable them to make critical decisions? Or is it only the
qualification?  


To get the complete picture, click on the link below: 

https://drive.google.com/file/d/1RodZ15CDR_BmEbWiVe63XJiFtWImafeV/view?usp=sharing

एक लाइब्रेरियन का अनुभव, सीधे दिल से !

आज मैं अपने कुछ अनुभवों को आप सभी के बीच साझा कर रहा हूँ मेरा नाम कैलाश पति साह हैं और मैं प्रयोग नामक संस्था मे काम करता हूँ, प्रयोग विद्यालयों में लाइब्रेरी पर केंद्रित काम करता है। प्रयोग संस्था जून 2013 मे कुचायकोट प्रखण्ड के बनियाछापर गाँव से शुरू हुआ सामुदायिक पुस्तकालय के रूप मे इसकी शुरुआत की गई वहाँ बच्चे आते थे खुद से किताब लेते थे और पढ़ते थे और बच्चे खुद डिमांड भी करते थे की हमे कौन सी किताबे चाहिए इसी को देखते हुये इस कार्य को हमने शिक्षा विभाग के साथ मिलकर सरकारी विद्यालयों मे शुरू किया गया |

                              आज हम आपसे उन अनुभवो को साझा कर रहा हूँ इस लॉक डाउन के समय मे हमारे संस्था के टीम ने मिलकर किया है। लॉक डाउन को देखते हुये सारे विद्यालय बंद थे और बच्चो से हमारा संपर्क टूट गया था अर्थात स्कूल मे हमारा पुस्तकालय सत्र संचालित नहीं हो पा रहा था और बच्चो के बीच किताबे नहीं पहुँच पा रही थी हमारे टीम मे बिनित सर है जो मेरे पहले से कार्यरत हैं। उन्ही के द्वारा एक सुझाव रखा गया की इस महामारी के बंदी के समय मे हम बच्चो से कैसे संपर्क बना सकते हैं तो उन्होंने हमसे एक सुझाव साझा किया की क्या हम बच्चो के बीच किताबों का लेन देन का कार्य शुरू कर सकते हैं ? उन्ही बच्चो के साथ जिन स्कूल मे हम काम करते है | और इस प्रोजेक्ट का नाम थालाइब्ररी चले बच्चों के घर| जिसमे हम बच्चो के बीच किताब लेकर जाएँगे और उन्हे किताब देंगे घर लेजा कर पढ़ने के लिए और इस पुस्तकालय मे कुछ गतिविधियाँ भी होंगी जैसे :- लेखन एवं चित्रकारी प्रतियोगिता इत्यादि | शुरू मे 3 जगह पे काम करने का सुझाव लिया गया की कुचायकोट प्रखंड के कोई 3 विद्यालय के बच्चो के साथ इस कार्य को किया जाएगा मैंने अपने विद्यालयों के प्रधानाध्यापक जी से इस पुस्तकालय के बारे मे चर्चा किया और उन्हे इस प्रोजेक्ट से जुड़ी सारी जानकारियां दी वो हमे पहले तो ये बोले की क्या आपके पास कोई इसका लेटर है? शिक्षा विभाग का अनुमति वाला पत्र हैं?  मुझे थोड़ा दुख तो हुआ और मेरे मन मे कई सवाल भी उठ रहे थे पर मुझे पता था की उनके लिए भी ये चुनौती होगा।  मैं सोचने लगा की क्या हम बच्चों  के साथ इस कार्य को कर पाएंगे ? क्या हम बच्चो के बीच कोई गतिविधि कर पाएंगे ? और बहुत से विचार थे जो मन मे रहे थे इन दिक्कतों को मैंने अपने टीम से साझा किया | बिनित जी जो की बालुवन सागर संकुल देखते थे और मैं बेलवा संकुल | उन्होने कहा – “कोई बात नहीं, मैंने अपने संकुल के खेम मटहिनिया गाँव के विद्यालय के प्रधानाध्यापक जी से बात की है उन्होने कहा है की सुझाव तो अच्छा है हम इस सामुदायिक पहल को कर सकते है |

 

 तो फिलहाल हम इसे पहले यही से शुरुआत करते हैं उसके बाद देखा जाएगा मुझे बहुत खुशी हुई, कहते है की डूबते को तिनके का सहारा मैं बहुत उत्सुक था इस प्रोजेक्ट को करने के लिए हमने एक समय निर्धारित किया बच्चो और बच्चो के गार्जियन के साथ बैठ कर इस प्रोजेक्ट पर चर्चा करने के लिए मैं और बिनित जी खेम मटहिनिया गए और वहाँ के अध्यापक से एक दिन और समय निर्धारित किया जो की उसी गाँव की एक अध्यापिका हैं उन्ही के घर के आगे एक दालान जैसा जगह था वही पे बच्चो और गार्जियन की मीटिंग हुई जिसमे बच्चे भी थे और उनके माँ भी आई थी दोचार बच्चो के पिता भी इस मीटिंग मे थे उन सभी के बीच हमारा चर्चा शुरू हुआ हमने पहले अपने बारे मे बताया, उसके बाद अपनी संस्था के बारे मे बताया और बच्चो के गार्जियन से कुछ सवाल हमने पूछे और उनके द्वारा हमे जवाब भी मिले

 

प्रश्न :- हम आपसे एक बात जानना चाहते है इस लॉकडाउन के समय बच्चे क्या कर रहे हैं ?

गार्जियन के जवाब :- घूमता है , मोबाइल से टाइम पास करता है कभी पढ़ता हैं , मोबाइल देखता हैं , घर का कमधाम करता है , क्रिकेट खेलता है

 

प्रश्न :अच्छा और लड़कियां  क्या करती हैं ?

गार्जियन के जवाब :- बैठे रहती है , खाना बनती है , TV देखती है , कभी पढ़ाई करती हैं

 

प्रश्न :बच्चो के पढ़ाई को लेकर आपलोगों को क्या चुनौतिया या समस्या रही हैं ?

  1. लड़का स्कूल मे पढ़ने जाता था तो संचित रहता था और इस समय तो झगड़ा करता हैं
  2. पढ़ता था तो अभ्यास होते रहता था लेकिन इस समय तो सब भूल रहा हैं
  3. 2-3 महीने से बच्चे बैठे है तो सब भूलते जा रहे हैं
  4. कभी बोलने पर पढ़ने बैठता है कभी नहीं बैठता हैं
  5. गाँव मै घूमता हैं |

सवाल जवाब के बाद गार्जियन से हमने पूछा की क्या अगर आपके बच्चो को हम यहां आकर किताबे दे पढ़ने के लिए तो क्या वह पढ़ेंगे ?

उनका जवाब था – “हाँ, क्यों नहीं ! पढ़ेंगे नहीं तो क्या करेंगे?” दिन भर घूमने से तो अच्छा है की बच्चे पढ़ें गार्जियन की हामी सुनकर मुझे बहुत प्रस्सनता हुई की उस गाँव के गार्जियन का हमे पूरा सपोर्ट मिल रहा हैं क्योंकि हमारे पास सबसे बड़ी चुनौती यही था की बच्चो के गार्जियन से अनुमति लेना और उनके बातों को  समझना। अभिभावकों से कहा गया की ठीक है, हम इस कार्य को जल्द ही शुरू करेंगे और आपको आगे का जानकारी मिल जाएगा की हम कब बच्चो को किताबे देने रहे हैं

अनुमति मिलने के बाद भी मुझे डर लग रहा था की कैसे होगा किस तरह से सारी प्रक्रिया होगी | हमने ऑफिस पे आकार कुछ किताबों का संग्रह तैयार किया और हर किताब पर दो प्रश्न दिये, एक A4 प्लैन शीट पर हमारा पहला सवाल बच्चो के सोच पर आधारित था की बच्चे कहानी पढ़ कर उनसे जुड़े अपने अनुभवो को लिखे और दूसरा सवाल था की उस किताब मे उन्हें जो भी चित्र अच्छा लगे उसे बनाए और यह भी बताए की ये चित्र उन्होंने क्यों बनाया इन प्रश्नो के साथ हमने कुछ किताबें तैयार की और 18/07/2020, दिन शनिवार को हम लोगो ने तय किया की इसकी शुरुआत करेंगे |

हमारे टीम की प्लानिंग थी की मैं 10 बजे तक गाँव पहुँच जाऊं और बच्चो को लेनदेन कार्ड देकर उन सभी से भरवा कर तैयार रंखू , दूरी बनाते हुये   चुकी मैं थोड़ा पास मे रहता हूँ और मुझे जाने मे ज्यादा समय नहीं लगेगा और मैं  वहाँ लगभग 9:55 पर पहुँच गया उस समय लगभग 15-20 बच्चे आए थे सर ने भी कहा की सर ज्यादा बच्चे नहीं आएंगे कोई दिक्कत नहीं होगा और मैं पेड़ के नीचे बैठ कर किताबों को अरैंज करने लगा और अभी तक बिनित जी नहीं आए थे किताब अरैंज करने के बाद मैंने देखा की बच्चो की संख्या बढ़ गई हैं मैं यही सोच रहा था की कोई बात नहीं होगी, कहीं से चट (त्रिपाल ) ले कर वहाँ पीपल के पेड़ के नीचे बिछा कर बच्चो को 2-2 हाथ दूरी पर बैठा दूंगा और मुझे खुशी भी हो रही थी और अंदर ही अंदर डर भी लग रहा था की क्या होगा, कैसे होगा | और अभी तक बिनित जी नहीं आए थे और देखते ही देखते बच्चो की संख्या लगभग 100 के आसपास हो गई थी अब मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था की मैं क्या करू क्योकि मैंने सोचा भी नहीं था की इतने बच्चे जाएंगे मैंने कैसे भी कर के बच्चो से कहा की आपलोग थोड़े देर खुले जगह मे खेले तथा बैठे हम किताब लेनदेन प्रक्रिया थोड़ी देर मे शुरू करेंगे और मैंने बिनित जी को कॉल लगाना शुरू किया मुझे समझ मे ही नहीं रहा था की मैं क्या करू। फिर कुछ देर बाद बिनीत जी आए , तब जाकर मुझे थोड़ा रिलीफ महसूस हुआ उन्होने आते ही बच्चो से कहा की जितने भी छोटे बच्चे है वो घर चले जाये यहाँ केवल 6, 7 और 8 क्लास के बच्चे रुकेंगे फिर भी बच्चे तो भाई बच्चे है वो मानेंगे थोड़ी हमने 6, 7 और 8 के बच्चो को फील्ड मे एक बड़े से गोलेकार मे खड़ा किया, दूरी बनाते हुये। और बच्चो को लेनदेन कार्ड दिया गया और उन्हे एक फ़ारमैट दिखाया गया और कहा गया की सभी बच्चे घर जाये और घर से इस फ़ारमैट जैसा अपने कार्ड को घर से बना के लाये और हमने यह भी देखा की बच्चे बिना मास्क के आए हैं हमने उनसे कहा की अगर आपको किताबे लिनी है तो मास्क लगा कर आना होगा | हम यहाँ 1 बजे तक है बच्चे घर चले गए हमने उस बीच थोड़ा चैन की सांस ली और हमने जो किताबे लेकर गए थे उन्हे डिस्प्ले मे लगाया और बच्चो का इंतजार करने लगे बच्चे 2-3 करके आते गए और किताब लेकर और लेनदेन कार्ड भर कर हमारे पास जमा कर के जाते रहे | हम हर बच्चे को बोले की किताब मे एक शीट है उसमे 2 प्रश्न है किताब पढ़ने के बाद उन प्रश्नो को लिख कर लाना हैं बच्चो को एक दिन बता दिया गया की बुधवार को हम किताब लेने आएंगे और आपको दूसरी किताब देंगे लेकिन लेनदेन प्रक्रिया मैडम के घर के आगे वाले दालान  मे होगा, जहाँ मीटिंग हुआ था सभी बच्चो ने सहमति जताई और हम लोग वहां से गए मन मे बहुत खुशी भी हो रही थी की हमने अपना प्रोजेक्ट शुरू कर दिया और हमने कुछ बच्चो को किताबे भी बाँटी |


               इस कार्य को करते समय बहुत सारी चुनौतियां भी हमारे सामने आती गई और हमने उसके अनुरूप अपना प्लान तैयार करते गए इस कार्य को करते हमे बहुत खुशी हो रही थी मगर हम बहुत थक जाते थे मगर खुशी इतनी होती थी की थकावट महसूस नहीं होती थी। की आज हमने बच्चो को कुछ किताबे पहुंचाई |

               अब बारी आती है दूसरे दिन की जिस दिन बच्चों से किताब और उत्तर शीट्स लेनी हैं और दूसरी किताब देनी हैं उस दिन बच्चे वहाँ आए थे मगर हम वहाँ नहीं पहुच सके क्योंकि बारिश बहुत तेज़ होने लगी बारिश बहुत हो रही थी और किताबे भी थी किताबे बारिश मे भीग जाती इस लिए हम उस दिन नहीं आए बच्चे उस दिन आए और इंतजार करके चले गए मैंने और बिनित जी ने तय किया की अगले दिन हम दोनों साथ जाएंगे आप एक जगह रुकिएगा मैं आऊँगा तो साथ चलेंगे मैंने कहा ठीक है मैं 22/07/2020 को बालुवन बाजार मे रुक कर बिनित जी का इंतजार कर रहा था और बच्चो का नया लेन देन कार्ड तैयार कर रहा था तभी बिनित जी कॉल किए की वो जाम मे फस गए हैं और समय पर नहीं सकेंगे | आप वहाँ जाकर बच्चो को सूचित कर दीजिये मैंने कहा ठीक है मैंने किताब का बैग वापस घर पर भेजवा दिया और मैं निकल पड़ा स्कूल के बच्चो की तरफ और मुझे थोड़ा दुख भी हो रहा था की आज बच्चो को फिर से निराश होना पड़ेगा और वो दुखी होकर घर जाएंगे मैं आधे रास्ते तक ही पहुंचा था की बिनित जी ने फिर कॉल किया और कहा की कैलाश जी मैं रहा हूँ आप वहीं रुकिए। मैंने कहाँ सर किताबे तो मैंने घर भिजवा दी और बिना किताब के कैसे होगा? बिनित जी ने कहा कोई उपाय लगा के किताब मंगवा लीजिये मै खुश हो गया की आज बच्चे निराश नहीं होंगे। आज कितना भी समय क्यों लगे बच्चो को किताब दिया जाएगा अभी हमारे पास बहुत समय है मेरे मन मे जोश उमड़ पड़ा मैंने कहा की सर आप आइये मैं घर जाकर किताबे लेकर आता हूँ और हम लोग बालुवन मे मिलेंगे उन्होने कहा ठीक हैं मैं घर से किताबे लेकर बालुवन मे इंतजार किया और बिनित जी का कॉल आने पर मैं पहले बच्चो के गाँव पहुँच कर उनके गार्जियन से कहा की आज बच्चो के बीच किताब का लेनदेन होगा आप लोग बच्चों को सूचित कर दीजिये की 12 बजे से किताबे बच्चो को दिया जाएगा और हम दोनों साथ मिलकर बच्चो के पास गए वहाँ बच्चों को देख कर मै बहुत खुश हुआ और बच्चे भी देख कर खुश हुयेवो चिल्लाने लगे सर गए, सर गए! बच्चो के बीच किताब लेने की ललक और पढ़ने की चाह को देख कर मेरा मन बहुत खुश हो गया और मुझे बहुत अच्छा भी लगा की बच्चो को आज किताबे मिलेंगी उस दिन हमने कुछ नए बच्चो का भी लेनदेन कार्ड बनाया जो इंतजार कर रहे थे इस लाइब्रेरी से जुड़ने का और जो बच्चे किताब ले गए थे वो किताब और उसकी उत्तर शीट्स हमे दिये और अपने लेनदेन कार्ड पर लिख कर दूसरी किताब लिए और हमने बच्चो से ही पूछा की क्या यहाँ कोई ऐसी जगह नहीं है जहा हम दूरी बना कर आप सभी को किताब दे सके या कुछ गतिविधि करवा सकेकोई बगीचा, कोई बड़ा सा फील्ड, इत्यादि एक बच्चे ने कहा एक जगह है, यही बगल मे ही मेरे एक बड़े पापा का दालन है जो की बहुत बड़ा है अगर आप चाहे तो वह हो सकता है | फिर मैं उस बच्चे को लेकर उस जगह पर गया जो लालन जी का दालान था मैने उन्हे अपना परिचय दिया और उनसे नम्र निवेदन के साथ कहा की क्या आप हमे यहा बच्चो को किताब बांटने की अनुमति दे सकते है? हम बस सप्ताह मे 2 दिन आएंगे1 से 2 घंटे के लिए उन्होने कहा, “हाँ, कोई दिक्कत नहीं है | ये तो बहुत अच्छी बात है की बच्चे को किताब आपलोग दे रहे हैं पढ़ने के लिए. हमे कोई दिक्कत नहीं है। आप यहाँ अपना काम आराम से कर सकते हैं उस दिन हमने कुछ बच्चो को किताबे वही से बांटी और वापस गए


हमने ऑफिस मे बैठकर आपस में चर्चा कर एक प्लान तैयार किया और उस दिन हमे कुछ बच्चो के कांटैक्ट नंबर और क्लास भी मालूम चल गए थे उनके उत्तर शीट्स से हमने बच्चो को 3 ग्रुप मे बाँट दिया ताकि ज्यादा भीड़ हो हमने कक्षा 4,5,6 के बच्चों को एक साथ किया 7और 8 को एक साथ किया और बिना क्लास लिखे बच्चो को एक साथ किया और उनका समय निधारित कर उन्हे कॉल के जरिये सूचित करते हुये अलगअलग समय पर बुलाया ताकि भीड़ हो उस दिन भी बच्चो को किताब दिये गए और उनके शीट्स लिए गए बच्चो के उत्तर और उनके चित्र बहुत ही प्यारे थे उनकी सोच भी बहुत अच्छे हैं वो कहानी को अपने नजरिए से पढ़ते है और लिखते है।


इस कार्य को करने मे हमे भी बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है। और बच्चो के साथ किताबों का तालमेल बढ़ रहा है जो वो मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा हैं बच्चो के साथ हम अपने इस प्रोजेक्ट को करते हुये जो भी चुनौतियां रही है उसके अनुसार अपने प्लान मे हम शामिल करते है और उन्हे दूर करने की कोशिश कर रहे हैं |


* यह ब्लॉग कैलाश द्वारा लिखा गया अनुभव है | अभी सिलसिला जारी है!